________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
___ इतने में सर्वज्ञ श्री वर्धमान स्वामी सागर-गंभीर और अमृत-तुल्य मधुर वाणी में कहते हैं, 'हे इन्द्रभूति गौतम ! आप सुखपूर्वक पाये है ? प्रभु अनंत ज्ञानी होने से जानते हैं कि 'वचन रूपी प्रथम औषधि की यह पुड़िया इन्द्रभूति की आत्मा में क्या रंग लाएगी और इस पर दूसरी कैसी पुडिया की आवश्यकता होगी ?' इन्द्रभूति सोचते हैं 'अहा ! मेरा नाम तक ये जानते हैं ? क्यों न जाने ? त्रिलोक में आबालवृद्ध मेरे विख्यात नाम को कौन नहीं जानता ? मेरे नाम से पुकारे, इसमें कोई आश्चर्य जैसी बात नहीं है, मेरे हृदय के संदेह को कह दें तो इन्हें सच्चे सर्वज्ञ मानूं।'
परमात्मा श्रमण भगवान श्री महावीर देव तो अनंतज्ञानी हैं। उनसे यह संदेह कहां छिपा है ? तत्क्षण प्रभु कहते हैं-'हे इन्द्रभूति गौतम ! जोव के अस्तित्व के विषय में क्या तुम्हारा संदेह है कि जगत में जीव जैसी वस्तु होगी या नहीं ? परन्तु तुम वेद की पंक्तियों का अर्थ ठीक ठीक क्यों नहीं समझते ?' ऐसा कह कर प्रभु "विज्ञानधन एव एतेभ्यो भूतेभ्यः समुत्थाय, तान्येवानुविनश्यति, न प्रेत्यसंज्ञाऽस्तीति" इन वेद पंक्तियों का उच्चारण करते हैं। अहा! प्रभु के इस उच्चारण की क्या भव्य ध्वनि थी ? मानो वह महासागर के मंथन की ध्वनि थी, अथवा गंगा की महान् बाढ़ की ध्वनि थी या आदि ब्रह्मध्वनि थी। कैसा गंभीर घोषपूर्ण यह हृदयभेदी स्वर था ? इन्द्रभूति को तो मानों ऐसा ही लग रहा था 'अहा ! क्या मैं किसी अन्य जगत में तो नहीं चला आया हूँ ? अथवा यह क्या है ? कैसा यह समवसरण ! कैसे प्रभु के दास बने हुए ये देव ! कैसा जिनेन्द्र का अनुपम रूप ! कैसा यह अलोकिक, अदृश्यपूर्ण और अनुपम कंठ का नाद ! मात्र यह ध्वनि सुनते ही त्रिविध ताप शान्त होता लगता है; मानो दुःखों का अन्त पा रहा है ऐसा लग रहा है कि मानो जीवन भर ऐसा ही सुनते रहें। ऐसी दिव्यवाणी द्वारा किया जाने वाला तत्त्वों का प्रकाश तो फिर न जाने कितना अद्भुत होगा' । बात भी सही है त्रिभुवन गुरु श्री अरिहंत देव का अनंतज्ञान, अद्भुत रूप अनुपम वारणी, अद्वितीय सम्मान और अप्रतिभ तत्त्वोंका प्रकाश अवर्णनीय ही होता है अतः जीव स्वाभिमान क्या कर सकता है ? कवि कहते
For Private and Personal Use Only