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भस्म ग्रह उतर गया। इसका मिलान इस प्रकार कीजिये कि ४७० बर्ष पर्यन्त नन्दी वर्द्धनका शाका और १५३० बर्ष पर्यन्त विक्रम सम्बत् एवं दोनोंको मिलानेसे २००० बर्ष हो गए। उस समय भस्म ग्रह उतर जानेसे और धूम केतुके बाल्यावस्थाके कारण बल प्रकट न होनेसे ही "लूका" मुहता प्रकट हो गया और शुद्ध प्ररूपणा होने लगी। तत्पश्चात् क्रमानुक्रम धूम केतुके बलकी वृद्धि होनेसे शुद्ध प्ररूपणा शिथिल हो गई । जव धूमकेतुका बल क्षीण होने पर आया तब सम्बत् १८१७ में श्री भिक्षगणीका अबतार हुआ और शुद्ध प्ररूपणाका पुनः श्रीगणेश हुआ। परन्तु धमकेतुके बिलकुल न उतरनेसे जिन मार्ग की विशेष बृद्धि नहीं हुई। पश्चात् सम्बत् १८५३ में धूमकेतु प्रहके उतर जानेके कारण श्रीस्वामी हेमराजजी की दीक्षा होने के अनन्तर क्रमानुक्रम जिन मार्गकी वृद्धि होने लगी।
___अस्तु आज कल जैसे कि साधुओं का सङ्गठन और एक ही गुरु की माशा में सञ्चलन आदिक तेरापन्थ समाज में है स्पष्ट वक्ता अवश्य कह देंगे कि वैसा अन्यत्र नहीं । आज कल पूज्य कालू गणी की छत्रछाया में रहते हुए लगभग १०४ साधु और २४३ साध्वीयां शुद्ध चारित्र्य पाल रहे हैं । इस समाज का उद्देश्य वेष बढ़ाना नहीं किन्तु निष्कलङ्क साधुता का ही बढ़ाना है। यदि साधु समाज के समस्त आचार विचार वर्णन किये जावे तो एक इतनी ही बड़ी पुस्तक और बन जावेगी। हम पहिले भी लिख आये हैं कि इस ग्रन्थ के संशोधन कार्य में आयुवेदाचार्य पं० रघुनन्दनजी ने विशेष सहायता की है अतः उनकी कृतज्ञता के रूप में हम इस पुस्तक के छपाने में निजी व्यय करते हुए भी पुस्तकों की समस्त रक्खे हुए मूल्य की आय को उनके लिये समर्पण करते हैं । यद्यपि “भिक्षु जीवनी” लिखी जा चुकी है तथापि वही विद्वजनों के अनुमोदनार्थ संस्कृत कविता में परिणत की जाती है। परन्तु समस्त कथा का क्रम ग्रन्थ की वृद्धि के भय से नहीं लिया जाता है। किन्तु संक्षेपातिसंक्षेप भाव का ही आश्रय लेकर साहित्य का अनुशीलन किया गया है। प्रेमिजन अवगुणों को छोड़कर गुणों पर ध्यान दें।
नाना काव्य रसाधारां भारतीन्ता मुपास्महे द्विपदोऽपि कविर्यस्याः पादाब्जे षट्पदायते ॥१॥