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शुद्धि और निरोध
आलम्बन का अभ्यास परिपक्व होता है, उस स्थिति में साधक निरालम्बन की भूमिका में पहुंच जाता है। यह संवर अथवा निरोध की भूमिका है। केवल पूर्व संस्कारों का निर्जरण करने से साधना की प्रगति नहीं होती। अतीतकालीन कर्म परमाणुओं का ग्रहण न हो तभी चित्तशुद्धि का विकास होता है। साधना के क्षेत्र में निर्जरण और संवरण दोनों का प्रयोग अनिवार्य है ।
१२ सितम्बर
२०००
भीतर की ओर
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