Book Title: Bhimsen Nrup Charitra
Author(s): Ajitsagarsuri
Publisher: Sagargaccha Jain Sangh Sanand
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साधर्मिकाणां वात्सन्यं, धर्मोपकरणानि च । शासनस्य प्रभावश्च चकार मुदिताऽऽशयः ॥ १८५ ॥ धर्मशालाऽनशालाख, सर्वत्र स्थापिता मुदा । याचकेभ्यो धनं प्रादा-दनवनमनर्गलम् ॥ १८६ ॥ मारीपटहस्तेन, दापितो धर्मबुद्धिना । राज्यलक्ष्मी फलं ह्येत - दयाधर्मप्रवर्त्तनम् ॥ १८७ चौर्यादिसप्तव्यसनानि सद्यः पलाय्य जग्मुः कचन प्रदेशे । भीतानि किं भूमिपतेः प्रभावा - च्छ्रिभीमसेनस्य समूहितानि ॥ १८८ ॥ प्राखैरप्युपकुर्वाणो, जनताहितकाम्यया ।
पुत्रवत्पालयामास, प्रजाः शुद्धमना नृपः ॥ १८९ ॥
आसीच्छ्रीसुखसागरः श्रुततपागच्छाम्बुजाऽहस्करः, सूरिः श्रीयुतबुद्धिसागरगुरुर्यत्पाद सेवारतः । तच्छिष्येण विनिर्मितेऽजितसमुद्रेणैष सूरीन्दुना, सर्वोऽगादशमोऽतिरम्यचरिते श्री भीमसेनीयके ।। १९० ।। इति श्री भीमसेननृपचरित्रे दशमः सर्गः समाप्तः ॥
अथैकादशसर्गः प्रारभ्यते ॥
श्रेयः संतनुते सुखं जनयते दूरीकरोत्यापदं, सौभाग्यं प्रददाति कीर्त्तिममलां विस्तारयत्यञ्जसा । ध्यातं यच्चरणाम्बुजं भवभयं चण्डं क्षिणोत्यङ्गिनां स श्रीमान्वृषभप्रभुः शिवकरः सर्वत्र संजायताम् ॥ १ ॥
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