Book Title: Bharatiya Chintan ki Parampara me Navin Sambhavanae Part 1
Author(s): Radheshyamdhar Dvivedi
Publisher: Sampurnanand Sanskrut Vishvavidyalaya Varanasi
View full book text
________________
भारतीय चिन्तन की परम्परा में नवीन सम्भावनाएं की सिद्धि के लिए एक प्रकार का मोह या अविद्या भी उपादेय है। किन्तु इसका यह अर्थ कदापि नहीं है कि आत्ममोह या अपने अस्तित्व के प्रति तृष्णा रखना भी कभी उपादेय हो सकता है। आत्मा की स्वीकृति से तो इस पूरे विकास एवं उत्कर्ष का मूलावात ही हो जाएगा। क्योंकि निःस्वभावता, शून्यता या अनात्मता ही वह धरातल है, जिसके आधार पर संसार-दुःख के निवारण की यह विराट् योजना खड़ी हो सकती है। सम्पूर्ण दुःखों का कारण मनुष्य का आत्मास्तित्व है, उसका निवारण परार्थ का मूल है और दुःखों का विगमन है। परिपाक, व्यक्ति और लोक
पहले ‘आश्रय-परावृत्ति' के द्वारा व्यक्तित्व में आमूल परिवर्तन की बात कही गयी है । यह आश्रय-परावृत्ति वास्तव में परार्थवृत्ति है । इस प्रक्रिया से मनुष्य व्यक्तिपुरुष नहीं, प्रत्युत लोक-पुरुष हो जाता है, जिसे बोधिसत्त्व कहा जाता है। इस आदर्श पुरुष को परार्थता की सिद्धि के लिए अपरिमित ज्ञान-सम्भार (ज्ञान-सामग्री) एवं पुण्य-सम्भार (सत्कर्मों की बहुलता) जुटाना है। इसकी तैयारी में परिपाक' की एक विशिष्ट क्रिया सम्पन्न करना आवश्यक है। परिपाक एक ऐसी परिपक्वता है, या समग्रता के रूप में तैयारी है, जो दुःखी लोक के दुःखनिवारण की अर्हता उत्पन्न करता है। यह परिपाक केवल व्यक्ति का नहीं, लोक का भी अपेक्षित है। रुचि, शान्ति, करुणा, मेधा आदि सभी गुणों की परिपक्वता आत्मपरिपाक कहा जाता है। इसी प्रकार लोक-परिपाक के लिए सर्वसामान्य सत्त्वों के लिए दान, शील, वीर्य, प्रज्ञा आदि गुणों की पूर्णता का आधान करना अपेक्षित होता है। इस प्रकार पारमिताओं के प्रयोग से लोकजीवन का परिशोधन होता है। इस तरह दुःख एवं तृष्णा से निवृत्ति के लिए वे अर्ह एवं परिपक्व होते हैं। दोनों प्रकार की इसी परिपाक-प्रक्रिया के द्वारा क्रमशः व्यक्ति का लोक से घनिष्ठ सम्बन्ध जुड़ता है।
___ उत्कर्ष एवं विकास की इस स्थिति में पहँचने पर परम्परागत मान्यताओं के लक्षण और परिभाषाएँ टूटने लगती हैं। स्वार्थ और परार्थ, व्यवहार और परमार्थ, संसार और निर्वाण तथा व्यक्ति एवं लोक के बीच का भेद प्रायः समाप्त होने लगता है। इन द्वन्द्वों के बीच भेद एक प्रकार से सांकेतिक रह जाता है और उनके बीच की कृत्रिम मान्यताओं के टूटने से व्यक्ति-जीवन और लोक-जीवन के बीच के सम्बन्धों के लिए सहजता एवं समता का सहज आधार प्रकट होता है ।
परिसंवाद-२
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org