Book Title: Bharatiya Chintan ki Parampara me Navin Sambhavanae Part 1
Author(s): Radheshyamdhar Dvivedi
Publisher: Sampurnanand Sanskrut Vishvavidyalaya Varanasi
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भारतीय चिन्तन की परम्परा में नवीन सम्भावनाएँ
मानों यह निर्हेतुक सत्त्व हो, जबकि इसके अपने विशिष्ट कारण होते हैं । इसे ही उपपादुक सत्त्व कहते हैं । भगवान् की ऐसी देशना कि 'उपपादुक सत्त्व हैं' सुनकर उच्छेदवादियों को उद्वेग नहीं हुआ, क्योंकि वे समझते थे कि भगवान् बुद्ध भी वैसे ही निर्हेतुकत्व का अस्तित्व मानते हैं, जैसे कि वे मानते हैं । अर्थात् जीवन की धारा पहले से नहीं आती और जीव इसी जन्म में सहसा प्रादुर्भूत हो जाता है । फलतः वे भगवान् के शिष्य हो गये । कालान्तर में उन्हें यथास्थिति का बोध हुआ और उनका जीवन भी अन्य शिष्यों की भाँति ही कृतार्थ हुआ । भगवान् बुद्ध की यही उपाय - कुशलता है । वे महाकरुणावश किसी जीव का त्याग नहीं करते और उपाय से उन्हें सन्मार्ग पर आरूढ़ करते हैं । इसीलिए उनकी देशना में वैचित्र्य होता है । कहने का आशय यह है कि यद्यपि उनकी नीतार्थ देशना ही वास्तविक स्थिति की बोधिका होती है, जिसमें उन्होंने कहा कि नित्य सत्त्व या आत्मा नहीं होता । फिर भी प्रवहमान जीवन धारा में व्यवहृत पुद्गल का अस्तित्व है, जो प्रज्ञप्तिसत् एवं संवृत्तिसत् है ।
बौद्ध दार्शनिकों के वस्तु विभाजन का एक यह भी प्रकार है कि वे समस्त पदार्थों का रूप, चित्त, चैतसिक, चित्तविप्रयुक्त संस्कार एवं निर्वाण इन पाँच भागों में विभाजन करते हैं । इनमें रूप जड या रूपस्कन्ध है । चित्त- चैतसिक चेतनांश हैं । निर्वाण एक असंस्कृत एवं लोकोत्तर धर्म है । चित्तविप्रयुक्त संस्कार वे धर्म हैं, जो न जड हैं, न चित्त- चैतसिकों की भाँति चेतन हैं और न उनका कोई आकार होता है, फिर भी उनका अस्तित्व होता है, जैसे- अनित्यता, सन्तति आदि । ये जड या चित्तचैतकों पर आश्रित होते हैं, वे इन्हीं के बल पर अपने अस्तित्व का लाभ करते हैं । इनकी पृथक् या स्वतन्त्र सत्ता नहीं होती । इन दार्शनिकों के मत में पुद्गल या व्यक्ति भी एक चित्तविप्रयुक्त संस्कार नामक पदार्थ है ।
ऊपर कहा गया है कि व्यक्ति के उपादानों में जड़ और चेतन दोनों अंश हैं । जड अंश शरीर या रूपस्कन्ध है तथा चेतन अंश चित्त- चैतसिक हैं या वेदना, संज्ञा, संस्कार और विज्ञान नामक चार स्कन्ध हैं । इनमें से कोई भी अंश नित्य नहीं है, क्योंकि सभी हेतु प्रत्ययों से उत्पन्न होते हैं और जो उत्पन्न होते हैं, वे अवश्य नाश-स्वभाव भी होते हैं । जिनका स्वभाव ही नाश है, उन्हें अवश्य उत्पाद के अनन्तर ही नष्ट हो जाना चाहिए, अन्यथा स्वभाव में हानि का दोष होगा, फलतः बौद्ध दृष्टि में सभी वस्तु क्षणिक होती है । व्यक्ति के उपादानों में जो चित्त चैतसिक या चेतन अंश है, उसके बौद्धों के अनुसार चार प्रत्यय या हेतु होते हैं । जो जड अंश होता है उसके
परिसंवाद - २
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