Book Title: Bharatiya Chintan ki Parampara me Navin Sambhavanae Part 1
Author(s): Radheshyamdhar Dvivedi
Publisher: Sampurnanand Sanskrut Vishvavidyalaya Varanasi
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व्यक्ति और समाज के व्यक्तिवादी, समष्टिवायी तथा समन्वयवादी स्वरूप का विवेचन १७१ परे या भिन्न समाज का कोई हित नहीं है। नाट्शे जैसे व्यक्तिवादियों और अराजकतावादियों की दृष्टि में व्यक्ति की शक्ति ही उसके अधिकारों की सीमा और मापदण्ड है। उनके विचार में स्वार्थ ही व्यक्ति का एक मात्र गुण है, आत्मविकास और आत्मविस्तार मानव की दो सहज प्रवृत्तियाँ हैं, आत्मविस्तार ही आत्मविकास का साधन हैं। शक्ति भर संसार पर छा जाना, आत्मविस्तार की माँग, प्रत्येक व्यक्ति के मौलिक अधिकार हैं। इसके लिए पाशविक और बौद्धिक शक्ति का यथा सम्भव प्रयोग वांछनीय है। इस अहंवादी व्यक्तिवादी अवधारणा का बुद्ध भगवान् की करुणामय धारणाओं से मेल बैठाना किसी तरह भी सम्भव नहीं है।
दूसरे प्रकार की धारणा समष्टिवादी है । ये सब धारणाएँ किसी न किसी रूप में व्यक्ति को समष्टि का अंग समझती हैं । कुछ विद्वानों की राय में व्यक्ति और समाज का सेन्द्रिय सम्बन्ध है । व्यक्ति समाज का अवयव है जिस तरह शरीर के हित की सिद्धि के लिए उपकरण के रूप में योगदान करना ही शरीर के विभिन्न अंगों का कार्य है। इसी तरह व्यक्ति का कोई अपना स्वतन्त्र ध्येय नहीं है, वरन् समाज के ध्येय की पूर्ति में योगदान ही उसका कर्तव्य है । कुछ सामाजिक मनोवैज्ञानिकों के विचार में व्यक्ति का मानस लोकमानस की अकस और प्रतिबिम्ब है। मानव का मानसिक विकास लोकमानस के अनुरूप होता है। कतिपय समाज वैज्ञानिक भी किसी न किसी रूप में समष्टिवादी व्याख्या का समर्थन करते हैं। इन सबने विचार में समाज से पृथक् व्यक्ति की कल्पना को असम्भव माना है। मानव व्यक्तित्व समाज की देन है। उसके जीवन की रूपरेखा तथा उसका चिन्तन और उसके क्रियाकलाप समाज द्वारा उपलब्धि में योगदान ही उसका मुख्य धन्धा है।
___कुछ समष्टिवादी मानवसमाज की एकता पर विश्वास नहीं करते। उनका समष्टिवाद किसी विशिष्ट वर्ग या राष्ट्र तक सीमित रहता है, अन्य वर्गों और राष्टों से उस विशिष्ट वर्ग या राष्ट्र का सम्बन्ध संघर्षात्मक और व्यक्तिवादी जैसा स्वार्थी और अहंवादी होता है। फासिस्ट मानव एकता पर विश्वास नहीं करते और उनकी राष्ट्रीयता की भावना सर्वथा, आक्रमणशील है। यथासम्भव सारे विश्व पर आधिपत्य वे प्रत्येक शक्तिशाली राष्ट्र का मौलिक अधिकार समझते हैं। श्री बी० के० राय के शब्दों में कहा जा सकता है कि फासिस्टों के विचार में शान्ति शक्ति की सगी बहन, युद्ध की जननी है, संघर्ष की तैयारी है, कमजोरों की लाचारी है, बलवानों की समझदारी है । युद्ध अभिशाप नहीं, शक्ति के विकास का माध्यम है। फासिस्टवाद पर विश्वास रखनेवाले समष्टिवादी दलीय अधिनायकवाद अर्थात् तानाशाही पर विश्वास करते हैं । समष्टिवादी हीगल भी राज्य को समाज का सर्वोत्कृष्ट रूप स्वीकार
परिसंवाद-२
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