Book Title: Bharatiya Chintan ki Parampara me Navin Sambhavanae Part 1
Author(s): Radheshyamdhar Dvivedi
Publisher: Sampurnanand Sanskrut Vishvavidyalaya Varanasi
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काश्मीर के अद्वैत शैवतन्त्रों में सामाजिक समता
२७३ पर इस प्रकार के प्रयासों में अतिसरलीकरण का आरोप आसानी से लगाया जा सकता है और विषय के हित में एक हद तक इसे स्वीकार करने के लिए हमें तैयार भी रहना चाहिए । परन्तु एक खतरे की ओर यहाँ पर ध्यान दिलाना उचित होगा। समता की बात हम लोक व्यवस्था के सन्दर्भ में करते हैं और समता को आधुनिक जीवन-बोध के एक आधारभूत मूल्य के रूप में स्वीकार किया गया है। पर व्यवस्था के व्यापक सन्दर्भ में समता को यदि हम एकमात्र मूल्य स्वीकार करके चलते हैं तो यह शायद वदतो व्याघात होगा और व्यवस्था के ही अर्थ के विपरीत जा पड़ेगा । अतः दर्शन का एक मूल कृत्य रहेगा कि सार्वभौम मूल्यों में एक तारतम्य वरीयताक्रम और फिर उसमें परस्परान्वयीत्व का बोध कराना । एक की कीमत पर दूसरे की प्राप्ति व्यवस्था के मूल भाव समंजसीकरण के विपरीत है। उदाहरण के लिए स्वातन्त्र्य की कीमत पर समता या राष्ट्र पारतन्त्र्य की कीमत पर व्यक्तिस्वातन्त्र्य वांछनीय नहीं होगी। अतः सामाजिक समता की उचित और निर्बाध उपलब्धि के लिए आवश्यक है कि व्यापक मूल्यचेतना के अन्तर्गत ही हम प्रयत्न करें। सर्वाङ्गीणत्व पर आग्रह करके तन्त्र हमें एकाङ्गिता के दोष से बचाने की बारबार चेष्टा करते हैं। स्वातन्त्र्य, साम्य, आत्मबोध, स्वस्यावस्थान, लोक चेतना के उदात्तीकरण (विकल्पसंस्कार), व्यक्तिचेतना के साधारणीकरण आदि मूल्यों में तन्त्रों ने जिस प्रकार सामंजस्य बैठाया है उससे हमें प्रेरणा लेनी चाहिए।
परिसंवाद-२
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