Book Title: Bharatiya Chintan ki Parampara me Navin Sambhavanae Part 1
Author(s): Radheshyamdhar Dvivedi
Publisher: Sampurnanand Sanskrut Vishvavidyalaya Varanasi

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Page 316
________________ सामाजिक समता और बौद्धदर्शन प्रो. रामशंकर त्रिपाठी सुविदित है कि बौद्धदर्शन अनात्मवादी है। शून्यता नैरात्म्य का पर्याय है। शून्यता सभी प्राणियों और वस्तुओं का स्वभाव है। शून्यता यद्यपि एक तथ्य है किन्तु वह अपने-आप में कोई वस्तु नहीं है, अपितु निषेधमात्र है । यह किसका निषेध करता है ? या इसका निषेध्य क्या है ? इसके बारे में ठीक-ठीक परिचय न होने के कारण अक्सर बड़े-बड़े दार्शनिक कह दिया करते हैं कि शून्यता का अर्थ है—'कुछ नहीं'। जब जीव, जगत, कुछ नहीं है तो इस दर्शन के अनुसार न कोई समाज हो सकता है औन न कोई सामाजिक व्यवस्था । फलतः सामाजिक समता की स्थापना में इसका कोई योगदान कथमपि सम्भव नहीं। लेकिन ये सारे निष्कर्ष शून्यता का अर्थ ठीक से न समझने के कारण उद्भूत हुए हैं। शून्यता का अर्थ 'कुछ नहीं' नहीं है, अपितु उसका अर्थ है-'सब कुछ' । नागार्जुन ने कहा है प्रभवति च शून्यतेयं यस्य प्रभवन्ति तस्य सर्वार्थाः । प्रभवति न तस्य किं न भवति शून्यता यस्य । अर्थात् जिसके मत में शून्यता है, उसी के यहाँ सारी व्यवस्था सम्भव है। जिसके मत में शून्यता नहीं, उस मत में कुछ भी नहीं हो सकता। इसका तात्पर्य यह है कि शून्यता का निषेध्य हमेशा अवस्तु होता है। अर्थात् जिसकी कथमपि किंचित् भी त्रिकाल में भी सत्ता नहीं है, और अज्ञानवश यदि उसकी सत्ता मान ली गयी है तो वह कल्पित सत्ता ही शून्यता का निषेध्य है। आशय यह है कि शून्यता का निषेध्य वस्तु नहीं, अपितु अवस्तु है। जो वस्तु है, वह प्रतीत्यसमुत्पन्न है अर्थात् कारणों की अपेक्षा से उत्पन्न है और शून्यता उसका निषेध नहीं करती। वस्तु की जो स्वतः या स्वभावतः सत्ता है, या आत्मा और ईश्वर की सत्ता है, वह नितान्त आरोपित है, अवस्तु है, अतः शून्यता केवल उसी का निषेध करती है। शून्यता परमार्थ सत्य है, वह प्रतीत्यसमुत्पन्न वस्तुओं का धर्म या स्वभाव है। प्रतीत्यसमुत्पन्न वस्तुएँ संवृतिसत्य हैं। स्वभावसत्ता, स्वतःसत्ता, आत्मा, ईश्वर आदि संवृतिसत्य भो नहीं हैं। सारा जगत् जीव और पदार्थ प्रतीत्यसमुत्पन्न है, अतः शून्यता उनका निषेध नहीं करती। जो है, उसका निषेध कोई कर भी नहीं सकता। फलतः इस दर्शन के अनुसार जगत् का त्याग नहीं, अपितु संग्रह किया जाता है। परिसंवाद-२ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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