Book Title: Bharatiya Chintan ki Parampara me Navin Sambhavanae Part 1
Author(s): Radheshyamdhar Dvivedi
Publisher: Sampurnanand Sanskrut Vishvavidyalaya Varanasi

View full book text
Previous | Next

Page 334
________________ जैन - पुराणों में समता ३०९ की पूर्ति होना असम्भव है । इसीलिए अत्यन्त आवश्यक आवश्यकताओं की पूर्ति करके ही सन्तोष करना चाहिए । अतः विवेक एवं न्याय पूर्वक चयन किये गये धन से इच्छा पूर्ति करनी चाहिए ।' जैनाचार्यों ने कहा है कि यदि कोई मनुष्य अपनी इच्छा पूर्ति अन्याय-मार्ग का आश्रय लेकर करता है तो उसे महान् कष्ट उठाना पड़ता है । अतएव न्यायपूर्वक धनार्जन करना ही जीवन को सुखी एवं सन्तुष्ट बनाने का एकमात्र मार्ग है । कामनाओं की पूर्ति का साधन अर्थ है, और अर्थ धर्म से मिलता है । इसलिए धर्मोचित अर्थ अर्जन से इच्छानुसार सुख की प्राप्ति होती तथा इससे मनुष्य प्रसन्न रहते हैं । अतएव धर्म का उलङ्घन न कर धन कमाना, उसकी रक्षा करना तथा योग्य पात्र को देना ही मुख्य लक्ष्य होना चाहिए । है जैनाचार्य जिनसेन ने समाज में वर्गसंघर्ष को रोकने के लिए श्रम का विभाजन किया है।" उन्होंने ऐसी व्यवस्था की थी कि सभी अपने-अपने पेशे में लगकर कुशलता का परिचय दे और कार्य में निपुणता लाकर देश को आगे बढ़ावें । इसीलिए महापुराण में एक दूसरे की आजीविका में हस्तक्षेप का निषेध किया गया है । अतः हम देखते हैं कि जैनाचार्यों ने जैन पुराण के माध्यम से समाज के विभिन्न क्षेत्रों में समता स्थापित करने का प्रयास किया है । समाज से विशेषाधिकारों एवं असमानता को दूर करके समन्वय की धारा प्रवाहित किया है । १. न्यायोपार्जितवित्तकामघटनः २. "। महापुराण ४१.१५८ । "वृत्तिश्च न्यायो लोकोत्तरो मतः । महापुराण ४२.१४ । तुलनीय - गरुड़पुराण १.२०५.९८ । ३. धर्मादिष्टार्थ संपत्तिस्ततः कामसुखोदयः । स च संप्रीतये पुंसां धर्मात् सैषा परम्परा ॥ महापुराण ५.१५ । ४. स तु न्यायोऽनतिक्रान्त्या धर्मस्यार्थसमर्जनम् । - रक्षणं वर्धनं चास्य पात्रे च विनियोजनम् । महापुराण ४२.१३ । ५. महापुराण २९.२९ । . ६. वही, १६.१८७ । Jain Education International For Private & Personal Use Only परिसंवाद - २ www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 332 333 334 335 336 337 338 339 340 341 342 343 344 345 346 347 348 349 350 351 352 353 354 355 356 357 358 359 360 361 362 363 364 365 366 367 368 369 370 371 372 373 374 375 376 377 378 379 380 381 382 383 384 385 386