Book Title: Bharatiya Chintan ki Parampara me Navin Sambhavanae Part 1
Author(s): Radheshyamdhar Dvivedi
Publisher: Sampurnanand Sanskrut Vishvavidyalaya Varanasi

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Page 381
________________ ३५६ भारतीय चिन्तन की परम्परा में नवीन सम्भावनाएँ - मीमांसाशास्त्र के धुरंधर विद्वान् लोकनीति से पूर्ण परिचित सम्पूर्णानन्द संस्कृत विश्वविद्यालय के भूतपूर्व साहित्यविभाग के आचार्य पं० पट्टाभिराम शास्त्री ने कहा-भास्तीयवाङ्मय में अनुरोधी एवं प्रतिरोधी विचारों के बीच भी किन्हीं बातों पर सबमें समता है। रागद्वेषादि के भंजन के लिए तथा सभी प्राणियों में समत्वदृष्टि की स्थापना के लिए चाहे नैरात्म्यवाद का आश्रय करें या आत्मवाद का पर दोनों ही स्थितियों में ममकार का आश्रयण एवं निरोध समान ही करना पड़ेगा। उन्होंने नीलकण्ठदीक्षित के श्लोक का उपाख्यान करते हुए कहा-'ममकार को छोड़ देना चाहिए किन्तु यदि वह नहीं छूट रहा हो तो सबमें ममकारबुद्धि पैदा करनी चाहिए।' ऐसी स्थिति में जगत् में किसी भी व्यवस्था के रहने पर समाज में वैषम्य नहीं आयेगा। उन्होंने मीमांसा के आत्मदर्शन का दो अर्थ करते हुए कहा कि आत्मदर्शन का तात्पर्य अपने आत्मा के समान दूसरे को देखना या अपना दर्शन होता है। इस प्रकार अपने से भिन्न स्थिति या अभिन्न स्थितिस्वरूपात्मक आत्मदर्शन में समत्व दष्टि बन जाती है फलतः समता स्थापित हो सकती है। प्राचीन राजनीति एवं अर्थशास्त्र के मर्मज्ञ विद्वान् पं० विश्वनाथ शास्त्री दातार ने कहा-समता दो प्रकार की हो सकती है। पहली पारमार्थिकसमता और दूसरी सामाजिकसमता । प्रथम समता मुक्ति की अवस्था वाली है, जिसमें क्रिया कारक का भेद मिट जाता है। सामाजिक समता तबतक स्थापित नहीं हो सकती, जबतक तेरा मेरा का प्रत्यय रहेगा, जब तक यह प्रत्यय होगा तब तक रागद्वेष भी नहीं मिटेगा। ऐसी स्थिति में समाज का व्यवहार मैत्रीपूर्ण नहीं बन सकता। मैत्रीपूर्ण व्यवहार के लिए शासनव्यवस्था निर्धारित की जाती है। शासनव्यवस्था से समाज में विषमता बढ़ती है पर जो राजा शासन को लोक की समृद्धि के लिए बनाये, वह सबमें कुटुम्बभाव तथा अपने देश में ही सभी भुवनों का समाकलन करता है। उनके यहाँ 'अयं निजः परो वा' इस भाव की कल्पना नहीं होती है। इस लिए समता बन जाती है। पर इस समता का कारण उस राजा के उपदेशक ज्ञानी जन ही होते हैं। जिनके निर्णयानुसार दण्डनीय को दण्ड दिया जाता है तथा अदण्डनीय के सम्मान की रक्षा की जाती है। यह जो राजा स्वार्थाभिमान से अपना शासन करता है तथा उपदेशकों की राय नहीं लेता, वह विद्वानों का अपमान करता है। फलतः वह अभिमानी राजा शीघ्र ही भ्रष्ट हो जाता है तथा पतित होता है। अतः शास्त्रों में गुणवान् परामर्शकों एवं लोगों को प्रशासन में महत्त्व दिया गया है। शास्त्रों में बताया गया है कि राम की मूर्ति भिन्न-भिन्न देश तथा भिन्न-भिन्न वेश में रहने पर आकृतिगत समानता के साथ वेशगत असमानता वाली होती है। वैसे ही उपासना एवं कर्म के Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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