Book Title: Bharatiya Chintan ki Parampara me Navin Sambhavanae Part 1
Author(s): Radheshyamdhar Dvivedi
Publisher: Sampurnanand Sanskrut Vishvavidyalaya Varanasi

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Page 379
________________ ३५४ भारतीय चिन्तन को परम्परा में नवीन सम्भावनाएं टकराहट भी होती है, अतएव इनमें सामरस्य होना चाहिए। इसके लिए प्रज्ञा तथा उपाय दोनों की जरूरत हैं। प्रो. राजाराम शास्त्री ने कहा कि फ्रांस की राज्यक्रान्ति के नारों में समता भी एक नारा था, मनुष्य बौद्धिकता, सौन्दर्यबोध तथा नैतिकता की दृष्टि से पशुओं से भिन्न हो जाता है और इसी भिन्नता के आधार पर वह एक दूसरे का सम्मान भी करता है। समता सामाजिकता का एक अन्यतम मूल्य है। यह व्यक्ति का स्वभाव न होकर समाज का स्वभाव है । आत्मवत् सर्वभूतेषु की भावना में समानता का भाव है पर यह एकपक्षीय व्यवहार नहीं, अपितु उभयपक्षीय है, अर्थात् यदि मैं दूसरे के प्रति वही व्यवहार करता हूँ जो मैं उससे अपने लिए चाहता हूँ। पर यदि दूसरे व्यक्ति की ऐसी भावना नहीं तो समता की स्थापना कैसे हो सकती है ? समाज में व्यक्ति भ्रातृभाव से समता की ओर मुड़ता है और पुनः स्वतन्त्रता की तरफ बढ़ता है, पर यदि कारण से कार्य की ओर बढ़ने का प्रसंग बने तो कहा जा सकता है कि स्वतन्त्रता से समानता और तब भातृभाव पनपता है। इस भातृभावमूलकसहयोग से ही मनुष्य ने मानवेतर जीवों पर विजय हासिल की है। इस प्रकार फ्रांस क्रान्ति के ये नारे मानव इतिहास में सबसे पहले समानता के उद्घोषक माने जाते हैं। आधुनिक समतावादियों ने समता की स्थापना के लिए प्रतिफल को समता, अवसर की समता, उपयोगितावादी समता तथा व्यक्ति के सम्मान के द्वारा समता की स्थापना आदि के कई सिद्धान्त प्रतिपादित किये हैं। पर इन सब में एकांगी दृष्टि है समता की सर्वांगीण दृष्टि के विकास के लिए विसंगतियों को दूर करने वाले नये दर्शन की प्रस्थापना करना पड़ेगा, इससे ही समता के नये दर्शन का विकास होगा। ___ वाराणसी के श्री गणेश सिंह मानव ने कहा-बीसवीं सदी में सम्पूर्ण मानव एक कुटुम्ब के रूप में समीप आ रहा है पर परम्परावादी एवं सुविधा प्राप्त वर्ग परिवर्तन में विरोध उपस्थित कर रहा है। साम्ययोग के निर्माण से वह अलग-अलग पड़ जायेगा और सामाजिक समता की स्थापना होकर रहेगी। ___इस गोष्ठी में कुछ परम्परागत शास्त्रपारंगत विद्वानों ने भी भाग लिये, उन्होंने समता की प्रतिष्ठा की वकालत करते हुए स्वस्वकर्तव्य के पालन पर बल दिया । वेदान्त एवं मीमांसा के प्रख्यात विद्वान् पं० सुब्रह्मण्य शास्त्री ने यज्ञ में अध्वर्यु, होता तथा यजमान आदि के स्वरूप एवं कर्तव्य का विवेचन करते हुए कहा कि व्यवस्था में प्रत्येक के कर्म बटे रहते हैं, इसका मतलब उत्कर्षापकर्ष का द्योतक नहीं है । अपितु स्वस्वधर्मा पारसवाद-२ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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