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जैन - पुराणों में समता
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की पूर्ति होना असम्भव है । इसीलिए अत्यन्त आवश्यक आवश्यकताओं की पूर्ति करके ही सन्तोष करना चाहिए । अतः विवेक एवं न्याय पूर्वक चयन किये गये धन से इच्छा पूर्ति करनी चाहिए ।' जैनाचार्यों ने कहा है कि यदि कोई मनुष्य अपनी इच्छा पूर्ति अन्याय-मार्ग का आश्रय लेकर करता है तो उसे महान् कष्ट उठाना पड़ता है । अतएव न्यायपूर्वक धनार्जन करना ही जीवन को सुखी एवं सन्तुष्ट बनाने का एकमात्र मार्ग है । कामनाओं की पूर्ति का साधन अर्थ है, और अर्थ धर्म से मिलता है । इसलिए धर्मोचित अर्थ अर्जन से इच्छानुसार सुख की प्राप्ति होती तथा इससे मनुष्य प्रसन्न रहते हैं । अतएव धर्म का उलङ्घन न कर धन कमाना, उसकी रक्षा करना तथा योग्य पात्र को देना ही मुख्य लक्ष्य होना चाहिए ।
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जैनाचार्य जिनसेन ने समाज में वर्गसंघर्ष को रोकने के लिए श्रम का विभाजन किया है।" उन्होंने ऐसी व्यवस्था की थी कि सभी अपने-अपने पेशे में लगकर कुशलता का परिचय दे और कार्य में निपुणता लाकर देश को आगे बढ़ावें । इसीलिए महापुराण में एक दूसरे की आजीविका में हस्तक्षेप का निषेध किया गया है ।
अतः हम देखते हैं कि जैनाचार्यों ने जैन पुराण के माध्यम से समाज के विभिन्न क्षेत्रों में समता स्थापित करने का प्रयास किया है । समाज से विशेषाधिकारों एवं असमानता को दूर करके समन्वय की धारा प्रवाहित किया है ।
१. न्यायोपार्जितवित्तकामघटनः
२.
"। महापुराण ४१.१५८ ।
"वृत्तिश्च न्यायो लोकोत्तरो मतः । महापुराण ४२.१४ । तुलनीय - गरुड़पुराण १.२०५.९८ ।
३. धर्मादिष्टार्थ संपत्तिस्ततः
कामसुखोदयः ।
स च संप्रीतये पुंसां धर्मात् सैषा परम्परा ॥ महापुराण ५.१५ ।
४. स तु न्यायोऽनतिक्रान्त्या धर्मस्यार्थसमर्जनम् ।
- रक्षणं वर्धनं चास्य पात्रे च विनियोजनम् । महापुराण ४२.१३ ।
५. महापुराण २९.२९ । .
६. वही, १६.१८७ ।
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परिसंवाद - २
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