Book Title: Bharatiya Chintan ki Parampara me Navin Sambhavanae Part 1
Author(s): Radheshyamdhar Dvivedi
Publisher: Sampurnanand Sanskrut Vishvavidyalaya Varanasi
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सामाजिक समता सम्बन्धी संगोष्ठी का विवरण
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ऐसी स्थिति में शास्त्रचिन्तकों का आज परम कर्तव्य है कि वे अमृतकणों का संचय करें, और उसे मानवता के हित में विश्व के समक्ष प्रस्तुत करें।
___ भारत में आत्मवाद एवं अनात्मवाद के चिन्तन में आध्यात्मिक समता पर बल दिया गया है। अद्वैत-आत्मवाद में जीवदृष्टि के विनाश से विषमता समाप्त मानी जाती है जबकि अनात्मवाद में आत्मदृष्टि के उच्छेद से। अनात्मवाद में कुछ नहीं का सब कुछ के साथ सम्बन्ध जोड़कर सर्वसंग्रह तथा आत्मवाद में सर्व को आत्मा के अन्दर लाने का प्रयत्न है । यह चिन्तन आध्यात्मिक समत्व के सन्दर्भ में है। पर प्रश्न यह है कि क्या आध्यात्मिक समता का सामाजिक समता से कोई सम्बन्ध है या नहीं है ? इसी प्रकार भोग और मोक्ष, ज्ञान और प्रयोग के बीच सम्बन्ध क्या है, इस पर भी विचार होना चाहिए। कर्मवाद का इस सन्दर्भ में काफी मूल्य आँका जाता है। आज की नई दुनियाँ में दूरी के समाप्त होने से सम्बन्धों के सूक्ष्म एवं संश्लिष्ट हो जाने से सामूहिक कर्मों का इस मात्रा में प्रभाव बढ़ रहा है कि उसका फल व्यक्ति को भोगना पड़ता है। इस स्थिति में कर्मफल का व्यक्तिगत विश्लेषण कितना उचित है, यह भी विचारणीय है।
___ काशी हिन्दू विश्वविद्यालय वाराणसी के डॉ० रामशङ्कर त्रिपाठी ने 'प्राचीन संस्कृत साहित्य में मानव समता' नामक निबन्ध के माध्यम से पूरे संस्कृत-साहित्य का आलोडन करके समतामूलक अंशों को विश्लेषित करने का प्रयत्न किया और वेद, उपनिषद्, धर्मशास्त्रों, पुराणों की मुख्यधारा में राजा के चयन की विधि, मन्त्रिपरिषद्, न्यायपद्धति, स्वायत्तग्रामसंस्थाय, धर्मनिरपेक्षता, स्त्रियों की दशा, सहशिक्षा, विवाह, अन्तर्जातीयविवाह, उत्तराधिकार, शूद्र का यज्ञ एवं देवपूजासम्बन्धी अधिकार, सरकारी नौकरियों में शुद्र का स्थान आदि के विषय में बड़ा रोचक एवं शोधपूर्ण प्रामाणिक विवेचन प्रस्तुत किया। इससे वर्तमान विसंगतियों को दूर करने में सहायता प्राप्त की जा सकती है।।
___ नार्थ इस्ट हिल यूनिवर्सिटी शिलाङ्ग के दर्शन के रीडर डॉ० हर्षनारायण ने सम्पूर्ण भारतीयवाङ्मय का तार्किक विश्लेषण करते हुए यह प्रस्थापित करने का प्रयत्न किया कि भारतीय चिन्तन धारा का एक उदारवादी पक्ष रहा है जो शूद्रों, स्त्रियों को सभी प्रकार का अधिकार प्रदान करता है, पर बाद के आचार्यों के कारण इस प्रबलधारा का विरोध खड़ा किया गया, जिससे वैषम्यमूलक परम्परा ही मुख्य बन गयी । इस विषमता में भी भारत का सामाजिक गठन इतना तार्किक है कि उसमें किसी एक वर्ग को शोषक करार नहीं किया जा सकता और यदि कहा भी जायेगा
परिसंवाद-२
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