Book Title: Bharatiya Chintan ki Parampara me Navin Sambhavanae Part 1
Author(s): Radheshyamdhar Dvivedi
Publisher: Sampurnanand Sanskrut Vishvavidyalaya Varanasi

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Page 343
________________ ३१८ भारतीय चिन्तन की परम्परा में नवीन सम्भावनाएँ दोनों तरफ से या अनेक व्यक्तियों में वही भावना हो, तभी व्यवहार में समता स्थापित हो सकती है। अन्यथा तो वह व्यक्तिगत आदर्श ही रह जायेगी। किन्तु दीर्घकाल से विकास के क्रम में समाज के निर्माण और संरक्षण के लिये समता की आवश्यकता सिद्ध हो गई है और सभी मनुष्यों का मूल्य बन गई है। विकासवाद के इस सिद्धान्त का भी इस क्रिया पर प्रभाव पड़ा है कि जो प्रथायें या भावनायें समाज के जीवन के लिये उपयोगी नहीं सिद्ध होतीं, वे निरस्त हो जाती हैं और जो व्यक्ति इनको स्वीकार नहीं करते, वे जीवन संघर्ष में पराजित हो जाते हैं। इस प्रकार वर्तमान समाज में वे ही लोग रह गये हैं जिन्होंने समता की भावना का आदर किया है। मात्रा भेद तो होता है लेकिन न्यूनाधिक्य यह भावना सभी सामाजिकों में पायी जाती है । केवल इसके उद्बोधन और संरक्षण की आवश्यकता रहती है। अब यह भी देख लेना चाहिये कि क्या स्वतन्त्रता की भावना भी इसी प्रकार मानव का स्वाभाविक गुण है जिस प्रकार भ्रातृभाव और समता को हम देखते हैं। यह कहा जाता है कि मनुष्य स्वतन्त्र पैदा हुआ था लेकिन इतिहास में वह सर्वत्र बन्धन में ही दिखाई देता है। प्रश्न यह उठता है कि यदि वह वास्तविक व्यवहार में कहीं स्वतन्त्र नहीं दिखाई देता तो यह कैसे मान लिया जाय कि वह जन्म से स्वतन्त्र था । वास्तव में मनुष्य की स्वतन्त्रता की कल्पना ऐतिहासिक नहीं है, अनुमानगम्य है और सामाजिक प्रवृत्तियों के बौद्धिक विश्लेषण से प्राप्त होती है। हम यह देख चुके हैं कि भ्रातृभाव और समता समाज के अविच्छेद्य गुण हैं। अब प्रश्न यह उठता है कि क्या समान व्यक्ति आपस में भ्रातृभावमूलक सहयोग स्थापित करेंगे तो परतन्त्रता में या विवशता में करेंगे। पहले तो यह बात ही नहीं समझ में आती कि समान व्यक्ति परतन्त्र हो कैसे सकते हैं और अगर वह परतन्त्र हो जाते हैं तो फिर वह समान कहाँ रहते हैं ? फिर विवशता में स्थापित हुआ सहयोग यदि सम्पन्न हो भी जाय तो वह भ्रातृभाव मूलक तो हो नहीं सकता और न समता मूलक हो सकता है। इसलिए निर्णय यही निकलता है कि मनुष्यों में विकास क्रम से भ्रातृभाव और समता का जो स्वभाव विकसित हुआ है, वह उसकी आन्तरिक स्वतन्त्रता से ही प्रसूत हुआ है और बोधपूर्वक चयन का परिणाम है। इस तरह यद्यपि इतिहास में कहीं ऐसा प्रमाण नहीं मिलता कि मानव व्यक्तियों ने स्वतन्त्र रूप से परामर्श करके कोई सामाजिक अनुबन्ध (सोशल कान्ट्रैक्ट) किया हो, और तदनुसार समाज की स्थापना की हो, लेकिन विकासक्रम में जिस अन्तःस्फूर्ति के द्वारा सामाजिकता की स्थापना हुई है उसको व्यक्तियों की स्वतन्त्र बुद्धि की सहमति अवश्य ही प्राप्त प्रतीत होती है, अन्यथा उसका विकास भ्रातृभाव और समता के आधार पर नहीं हो सकता था। परिसंवाद-२ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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