Book Title: Bharatiya Chintan ki Parampara me Navin Sambhavanae Part 1
Author(s): Radheshyamdhar Dvivedi
Publisher: Sampurnanand Sanskrut Vishvavidyalaya Varanasi

View full book text
Previous | Next

Page 341
________________ ३१६ भारतीय चिन्तन की परम्परा में नवीन सम्भावनाएँ चाहता है । उपेक्षा उसे सह्य नहीं होती । इसी का दूसरा पक्ष दूसरों के प्रति सम्मान की भावना भी है, क्योंकि बिना एक के दूसरा नहीं मिलता । इस प्रकार आत्मसम्मान और पर सम्मान भी मानव स्वभाव के अंग ही हैं । ऐसा प्रतीत होता है कि मानव में सम्मान की भावना उसकी नैतिक भावना का पूर्वरूप ही है जो कर्म के क्षेत्र में नैतिकता है पर सामाजिक व्यवहार भाव के क्षेत्र में सम्मान की भावना है । सम्मान कर्तव्य का हार्दिक रूप है जबकि कर्तव्य पारस्परिक सम्मान का व्यावहारिक रूप है । फिर भी यह दोनों मनुष्य में स्वतन्त्ररूप से भी दिखलाई देते हैं । सम्मान की भावना कभी-कभी अपने आप में पर्याप्त होती है और बिना नैतिक भावना को व्यक्त किये हुए भी पारस्परिक सहयोग को सम्पन्न कर लेती है, और कभी-कभी तो वह पारस्प रिक प्रेम के रूप में नैतिक भावना की उपेक्षा ही नहीं किन्तु अतिक्रमण भी कर जाती है, किन्तु ऐसा तभी होता है जबकि पारस्परिकता के क्षेत्र को सीमित कर दिया जाता है और इस सीमित क्षेत्र का विशाल क्षेत्र से विरोध हो जाता है । पारस्परिक सम्मान की भावना हृदयगत होने के कारण सौन्दर्यबोध का रूप ले लेती है और अपने आलम्बन को सौन्दर्य का रूप दे देती है । जिसके कारण मनुष्य में सुन्दर और असुन्दर का, सुरुचि और कुरुचि का विवेक उसी प्रकार उत्पन्न होता है। जिस प्रकार कर्म के क्षेत्र में सत्कर्म और असत्कर्म का भेद किया जाता है । जिस व्यक्ति का सौन्दर्यबोध विकसित है उसे कर्तव्याकर्तव्य समझाने के लिये किसी नैतिक युक्ति की आवश्यकता नहीं होती । यदि उसे इस बात का बोध करा दिया जाय कि उसका कार्य कैसा भद्दा मालूम होगा । भगवान् कृष्ण ने अर्जुन को रण में प्रवृत्त करने के लिये इसी तर्क का सहारा लिया था । जब उन्होंने उसके सामने यह प्रश्न रखा था कि उस जैसे क्षत्रिय का युद्ध से विरत होना कैसा लगेगा ? इस प्रकार सौन्दर्यबोध नैतिक प्रेरणा से नितान्त स्वतन्त्ररूप से चलता है । वास्तव में मनुष्य की तीनों प्रवृत्तियाँ बौद्धिकता, सौन्दर्यबोध और नैतिकता पारस्परिक होते हुए. भी एक दूसरे से स्वतंत्ररूप में दिखाई देती हैं और व्यक्ति भेद से किसी में किसी का और किसी में किसी दूसरे का प्राबल्य होता है । इसी प्राधान्य भेद से व्यक्ति अलगअलग पहचाने जाते हैं । प्रतिभा सम्पन्न होने पर सौन्दर्यबोध प्रौढ़ व्यक्ति कभी रसिक या भक्त कहलाता है, नैतिक चेतना प्रौढ़ व्यक्ति महात्मा या कर्मयोगी कहलाता है और बुद्धि प्रौढ़ व्यक्ति ज्ञानी, ऋषि या मुनि कहलाता है । मानव अन्तःकरण के ये तीन क्षेत्र ज्ञान, इच्छा, क्रिया अपने विषय या लक्ष्य की दृष्टि से सत्यम्, शिवम् और सुन्दरम् भी कहे जाते हैं, किन्तु ज्ञान का विषय सत्य है, इच्छा या भाव का विषय सुन्दर है, और क्रिया का विषय शिव या कल्याण है । जन सामान्य परिसंवाद - २ कलाकार, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 339 340 341 342 343 344 345 346 347 348 349 350 351 352 353 354 355 356 357 358 359 360 361 362 363 364 365 366 367 368 369 370 371 372 373 374 375 376 377 378 379 380 381 382 383 384 385 386