Book Title: Bharatiya Chintan ki Parampara me Navin Sambhavanae Part 1
Author(s): Radheshyamdhar Dvivedi
Publisher: Sampurnanand Sanskrut Vishvavidyalaya Varanasi
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भारतीय चिन्तन की परम्परा में नवीन सम्भावनाएं
समाज में जो वर्गीकरण स्थापित करता है उसमें असमानता या विषमता तो हो सकती है किन्तु इस व्यवस्था को बदलने का किसी को नैतिक अधिकार नहीं है, क्योंकि इस व्यवस्था में सारे सौदे उत्पादकों के सहमति से होते हैं और इसलिए सौदा करने वाले दोनों पक्ष के हित में होते हैं। ऐसे सभी सौदे मिल कर सभी के लिए हितकर होते हैं। अतएव यही उचित और युक्तिसङ्गत है कि प्रत्येक उत्पादक ने अपनी जिन विशिष्ट योग्यताओं को उत्पादन की प्रक्रिया में निक्षिप्त किया है उन्हीं के आधार पर उसे बाजार और बाजार में होने वाले सौदों के द्वारा निर्धारित आय पुरस्कार स्वरूप प्राप्त हो । यही सामाजिक आय के वितरण की उचित पद्धति है जिसे वितरण न्याय कहा जाता है। इसमें तो संदेह ही नहीं कि सामाजिक पुरस्कारों का वितरण यदि इस प्रकार होता है कि विशिष्ट योग्यता वाले व्यक्ति समाज के हित में अधिकतम योगदान देने की स्थिति में होते हैं, तो इससे अन्ततोगत्वा समाज के सभी सदस्य लाभान्वित होते हैं। खुला बाजार पूंजीवादियों के लिये आर्थिक क्षेत्र में वही काम करता है जो धार्मिक क्षेत्र में ईश्वर का होता है। जो लोग ईश्वरी नियमों का पालन करते हैं, वे पुण्य प्राप्त करते हैं और जो उनकी अवहेलना करते हैं, वे पाप का संचय करते हैं। इसी प्रकार जो उत्पादक बाजार की गतिविधि के अनुसार आचरण करेगा उसे लाभ प्राप्त होगा, और जो उसकी उपेक्षा करेगा उसे हानि प्राप्त होगी। इस व्यवस्था में समता का विशेष महत्त्व नहीं दिखाई देता। इसके विपरीत समाज के कुछ वर्ग तो इसमें विशेष रूप से उपेक्षित रहते हैं। अनुत्पादक वर्ग का तो इसमें कोई स्थान ही नहीं होता। क्योंकि यह व्यवस्था तो उत्पादकों के इकरारनामे से बनी समझी जाती है और इस व्यवस्था में उन्हीं का राजनीतिक अधिकार होता है। फिर भी ऐतिहासिक दृष्टि से देखने पर इस पद्धति में भी समता की मूलरूप से उपेक्षा नहीं है। सबसे बड़े पंजीवादी देश युनाइटेड स्टेट्स में अमेरिका की स्वतन्त्रता के समय सामाजिक इकरार के सिद्धान्त को ही आधार बनाकर सभी स्वतन्त्र व्यक्तियों को समान राजनैतिक अधिकार दिये गये थे। आर्थिक समानता को महत्त्व नहीं दिया गया था किन्तु ऐतिहासिक दृष्टि से देखा जाए तो उस समय इसकी आवश्यकता भी नहीं थी। क्योंकि आर्थिक समानता तो अमेरिकन लोगों की स्थिति में स्वयं सिद्ध थी। ये लोग जब योरोप से इस नये महाद्वीप में आये थे तो अपने साथ कोई सम्पत्ति नहीं लाये थे।
और अमेरिका में आने के बाद जो भूमि इन्हें मिली, वह इनकी संख्या को देखते हुए निःसीम थी। इसमें प्रयास का ही महत्त्व था । जो व्यक्ति जितनी जमीन अपने प्रयास से उर्वर और उपयोगी बना ले, उसपर उसके स्वामित्व का विरोध करने वाला कोई
परिसंवाद-२
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