Book Title: Bharatiya Chintan ki Parampara me Navin Sambhavanae Part 1
Author(s): Radheshyamdhar Dvivedi
Publisher: Sampurnanand Sanskrut Vishvavidyalaya Varanasi
View full book text
________________
२८९
सामाजिक समता के सन्दर्भ में भारतीय दर्शन समाज कई तरह से प्रभावित हो रहा है । धर्मों को नये मूल्यों में बदला जा रहा है। अब धर्म न कह कर मानवीय मूल्य कहा जा रहा है। अब वर्णाश्रम व्यवस्था न कह कर समाज व्यवस्था का नाम दिया जा रहा है । अब कर्म की श्रेष्ठता के आधार पर जीवन बदल रहा है । ऊँचा नीच बन रहा है नीच ऊँच बन रहा है । आज पूरे देश में यह स्थिति है । पर इसे सीधे न कह कर वक्ररूप से कहा जा रहा है। सभी परेशान हैं । पर कहना कोई नहीं चाहता।
परेशानी के आ जाने पर व्यवस्था के लिए आदमी खुद को तैयार करता है और व्यवस्था को अपनी परम्परा से निकालना चाहता है। १८ महीने की इमरजेन्सी ने एक व्यवस्था का उन्मूलन कर दिया, फिर दूसरी व्यवस्था की अपर्याप्तता से तीसरी व्यवस्था की ओर आदमी का ध्यान जा रहा है। इसी प्रकार करीब हजार वर्ष की व्यवस्था से ऊबा हुआ आदमी बुद्ध की शरण गया था, पर उनकी व्यवस्था भी बहुत टिकाऊँ नहीं रही और पुनः एक तीसरी व्यवस्था की ओर गया। इस प्रकार समाज का स्वरूप बदलता हुआ एक का विरोध कर दूसरे से संयोग बनाता हुआ आज तक चला आ रहा है। सम्भवतः यही मार्क्स के घात-प्रतिघात या संघात के रूप में विकसित वर्गसंघर्ष से समाजवादी व्यवस्था का स्वरूप होगा।
पश्चिम से पूर्व में एक विशेषता पायी जाती है वह विशेषता सम्भवतः अध्यात्म की है । अध्यात्म यद्यपि व्यक्तिगत होता है, पर सह सामूहिक भी बन सकता है । यदि मोक्षमार्ग का अधिकारी पुरुष किसी संसारी से बात करे तो कम से कम उन दोनों में संघर्ष नहीं होगा। रास्ता का भटकाव हो सकता है, मनमुटाव हो सकता है, पर शस्त्र संघर्ष नहीं। समृद्ध व्यक्ति का आपसी संघर्ष नाश का रास्ता खोलेगा, केवल मनमुटाव मात्र नहीं रहेगा। इसलिए समृद्ध व्यक्ति भटकाव या उदासीन मार्ग की ओर बढ़ रहे हैं। यह पूर्व की पश्चिम पर जीत है। यह व्यक्ति की जीत अवश्य है पर समाज की जीत नहीं है। समाज की जीत के लिए व्यक्ति के अध्यात्म को सामाजिक अध्यात्म के रूप में बदलना पड़ेगा। अगर वह बदलेगा तो सामाजिक समता कायम होगी।
यह बदल सकता है क्योंकि स्थिर समाज में प्रभु का विरोध करना बहुत कठिन होता है। व्यक्ति अपनी मानसिक शान्ति को स्वतः खोजकर उसी में एक रस बना रहता है । वह राज्य निरपेक्ष पर्णकुटी का अधिवासी हो जाता है। फलतः वह राज्य सत्ता का विरोध नहीं कर पाता है। भारतीय सन्त दार्शनिकों की यही हालत रही है। वे एक ब्रह्मवाद, आत्मन्, अनात्मन्, सर्वात्मन् में अवश्य विश्वास करते थे
परिसंवाद-२
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org