Book Title: Bharatiya Chintan ki Parampara me Navin Sambhavanae Part 1
Author(s): Radheshyamdhar Dvivedi
Publisher: Sampurnanand Sanskrut Vishvavidyalaya Varanasi
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जैनदर्शन के सन्दर्भ में समता के विचार
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प्रामाणिकता को, वीतरागता और सर्वज्ञता को जगाने का है । इसे जगा लिया तो तुम स्वयं आप्त हो जाओगे, सर्वज्ञ हो जाओगे । अपने को जीत कर जिन हो जाओगे और तब तुम जो कुछ कहोगे वह शास्त्र बनेगा, वही प्रमाण होगा। तुम स्वतः प्रमाण हो। तुम स्वयं ईश्वर हो ।
जैन दार्शनिकों ने कहा यह विश्व विराट है । प्रतिपल इसमें कुछ न कुछ घटित होता रहता है । इसे समग्र रूप में एक साथ जान पाना मुश्किल है । जान भी लोगे तो एक साथ इसका निर्णय नहीं कर सकते । हमारी वाणी की सीमा है । समग्रता की अभिव्यक्ति एक साथ सम्भव नहीं है । अखण्ड को हम खण्ड-खण्ड करके जानते हैं, और खण्ड-खण्ड करके अभिव्यक्त करते हैं । यही अनेकान्त का चिन्तन है । यही स्याद्वाद की भाषा है । खण्ड की अनुभूति और ज्ञान सापेक्षता की मथानी से मथकर निकाला या तत्त्वचिन्तन का नवनीत है । इस रहस्य को दही विलोने वाली गोपी ज्यादा आसानी से समझ सकती है ।
सापेक्षता के इस सिद्धान्त की निष्पत्ति है विचार, वाणी और व्यवहार में मुक्ति दिलाता है । और समता के उस विषमता का विरोध पानी-पानी होकर
समन्वय । सापेक्षता का परिज्ञान दुराग्रह से उच्च शिखर पर प्रतिष्ठित करता है, जहाँ से हजार धाराओं में बह जाता है ।
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महावीर के युग की विषमता का केन्द्रबिन्दु था 'धर्म' और आज की विषमता की धुरी है राजनीति | पीरख्वाजा की मजार पर चादर चढ़ाने में भी राजनीति है और बाबा विश्वनाथ पर जल की धारा छोड़ने में भी । रामायण और मनुस्मृति जलाने में भी राजनीति है और पत्थर की प्रतिमा को गंगाजल से धोने में भी । गोदामों में अनाज सड़ने में भी राजनीति है और रिजर्व बैंक का सोना नीलाम करने में भी । आरक्षण में भी राजनीति है और आरक्ष का विरोध करने में भी । हमारे भोजन छोड़ने में भी राजनीति है और अधिक खाने में भी । इस समय सामाजिक, आर्थिक और धार्मिक विषमता का मूल है राजनीति । और सामाजिक समता का भी मूल है राजनीति । तब क्यों न हम राजनीति को जियें, राजनीति को ही ओढ़ें, राजनीति को ही बिछाएं । खायें भी राजनीति और पिएं भी राजनीति । क्यों न हम राजनीति के ही पण्डित हो जाएं ।
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भारत की जिस मनीषा ने धर्म और संस्कृति का दर्शन प्रस्तुत किया था उसे अब समग्र जीवन की राजनीति का दर्शन प्रस्तुत करना पड़ेगा। उसी दर्शन में से सामाजिक समता का धर्म और संस्कृति जन्म लेगी ।
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परिसंवाद -२
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