Book Title: Bharatiya Chintan ki Parampara me Navin Sambhavanae Part 1
Author(s): Radheshyamdhar Dvivedi
Publisher: Sampurnanand Sanskrut Vishvavidyalaya Varanasi
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वैदिकदर्शनों की दृष्टि में समता का स्वर
पं० केदारनाथ त्रिपाठी वैदिकदर्शनों का मुख्य उद्देश्य दुःख की आत्यन्तिकी निवृत्तिरूप परमपुरुषार्थ का उपायभूत आत्मतत्त्व का ज्ञान कराना है। जैसे, परमपुरुषार्थ निःश्रेयस की सिद्धि के पूर्व अभ्युदय का महत्त्वपूर्ण स्थान है, वैसे ही मुक्तिसाधनभूत आत्मतत्त्व का निर्विचित्स ज्ञान के लिये अनात्मतत्त्व का ज्ञान भी आवश्यक है। इसीलिये वैशेषिकदर्शन के प्रणेता कणादने धर्म की व्याख्या करते हुए “यतोऽभ्युदय निःश्रेयस सिद्धिः स धर्मः" ऐसा कहा है। साथ ही आत्मतत्त्वनिरूपण के प्रसङ्ग में सभी अनात्म तत्त्वों का भी विशद निरूपण किया है।
तत्त्वों के निरूपणार्थ विभिन्न दर्शनों ने विभिन्न साधन अपनाया है। जैसे दोनों पूर्वोत्तरमीमांसाओं ने श्रौततत्त्व के निरूपणार्थ कर्मकाण्डीय एवं ज्ञानकाण्डीय श्रुतियों का तात्पर्य विचार किया। न्यायवैशेषिकादि शेष दर्शनों ने प्रमाणों के आधार पर सम्पूर्ण जागतिक तत्त्वों का विचार किया और उसमें भी श्रुतियों का विरोध न हो, ऐसा ध्यान रखा। आत्मतत्त्व के मुख्यतः श्रौत होने पर भी जगदन्तर्गत होने से उस पर न्यायवैशेषिकादि दर्शनों ने भी प्रमाणों के आधार पर गम्भीर विचार किया। तत्त्वों का विचार स्वरूपतः करते हुए एक दूसरे के साथ साधर्म्य वैधर्म्य की दृष्टि से भी विचार किया। विचार में कुछ तत्त्व दूसरे की समता में आये तो किसी रूप में विषमता में भी आये । यह बात न्यायवैशेषिक एवं सांख्य के साधर्म्य-वैधयं प्रकरणों से स्पष्ट हो जाती है।
तात्पर्यतः दर्शनों के सम्बन्ध में यही कहा जा सकता है कि सभी दर्शन तत्त्व का निरूपण करते हैं, जिसमें जागतिक समता और विषमता दोनों ही स्वरित होती है। बौद्धदर्शन में भी क्षणिकत्व विज्ञानरूपत्व या अर्थक्रियाकारित्व की दृष्टि से सभी सत् पदार्थों में समता स्वरित होती है। किन्तु अलीक में और सत् में विषमतायें स्पष्ट हैं । फलतः समता और विषमता दोनों ही वस्तुगत हैं, जिसका निरूपण दर्शनों में किया मिलता है। बिना साधर्म्य-वैधर्म्य ज्ञान के वस्तुस्वरूप का सम्पूर्ण चित्रण मानस पटल पर नहीं हो पाता और न हम अनात्मतत्त्व से आत्मतत्त्व का पृथक्करण ही कर
परिसंवाद-२
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