Book Title: Bharatiya Chintan ki Parampara me Navin Sambhavanae Part 1
Author(s): Radheshyamdhar Dvivedi
Publisher: Sampurnanand Sanskrut Vishvavidyalaya Varanasi
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भारतीय चिन्तन की परम्परा में नवीन सम्भावनाएँ करते समय मीमांसा तथा धर्मशास्त्रों के प्रचलित मतों को स्वीकार कर लिया है। वैदिक क्रिया-कलापों की रामानुज ने मान्यता प्रदान तो की है किन्तु वरीयता तान्त्रिक साधना अर्थात् प्रपत्ति या शरणागति को ही दी है। रामानुज यहाँ उस चिकित्सक के रूप में सामने आते हैं जो एक ही रोग के दो उपचारों को मानते हुए एक उपचार (तान्त्रिक दीक्षा, प्रपत्ति-शरणागति) को दूसरे उपचार (वैदिक मार्ग) की अपेक्षा सर्व सुलभ, सुकर तथा शीघ्रफलप्रद होने के कारण मान्यता प्रदान करते हैं। विषमता का प्रतिपादन करने वाले वैदिक मार्ग को एक मार्ग मानते हुए भी तान्त्रिक मार्ग का जनसामान्य के लिए रामानुज ने अनुमोदन किया है। अब हमें यह देखना है कि वैष्णव तन्त्रों की अर्थात् पाञ्चरात्र आगमों की इस विषय में क्या स्थिति है ? पाञ्चरात्र आगम
शङ्कराचार्य, भास्कराचार्य तथा तन्मतानुलम्बी अन्य आचार्य ब्रह्मसूत्र के 'विप्रतिषेधाच्च" सूत्र में 'चतुर्ष वेदेषु परं श्रेयोऽलब्ध्वा शाण्डित्य। इस वचन को उदाहृत करते हुए कहते हैं कि 'शाण्डित्य ने चारों वेदों में परम पुरुषार्थ को न देख कर इस शास्त्र का अध्ययन किया' इस प्रकार के स्पष्ट वेदनिन्दक वचनों के होने के कारण पाञ्चरात्र वेदविरोधी और अप्रामाणिक हैं । किन्तु यह तर्क अधिक सार्थक नहीं प्रतीत होता। रामानुज ने ठीक ही कहा है कि यदि यह तर्क मान लिया जाय तो स्वयं वेद का एक भाग अप्रामाणिक हो जायगा। उदाहरण के रूप में भूमविद्या के उपक्रम में नारद का कथन-ऋग्वेदं भगवोऽध्येमि यजुर्वेदं सामवेदार्वणं चतुर्थम इतिहासपुराणं पञ्चमम् इस प्रकार अनेक विद्याओं का उल्लेख करने के बाद वह कहते हैं'सोऽहं भगवो मन्त्रविदेवास्मि नात्मवित्" । जिस प्रकार से यहाँ नारद का अभिप्राय भूमविद्या की प्रशंसा ही है न कि वेदनिन्दा, उसी प्रकार से शाण्डिल्य के उक्त कथन को वेदनिन्दा परक न मानकर पाञ्चरात्र स्तुतिपरक मानना चाहिए। अतः पाञ्चरात्र आगमों में वेदनिन्दा है इस प्रकार के कथन भ्रामक होने के अतिरिक्त और कुछ नहीं हैं।
किन्तु इतना तो है ही कि इन वैष्णव तन्त्रों ने ईश्वर प्राप्ति का उन लोगों के लिए भी अर्थात् स्त्री और शूद्रों के लिए भी एक ऐसे द्वार (भक्ति तथा शरणागति) का उद्घाटन किया जो वेद तथा वेद प्रतिपादित मार्ग से भिन्न है। इस अर्थ में कोई उन्हें वेदविरोधी कहना चाहे तो वह दूसरी बात है। किन्तु पाञ्चरात्र आगमों को
१. ब्रह्मसूत्र १.३.४५ । ३. छान्दोग्य ७.१.२ । परिसंवाद-२
२. शारीरकभाष्य १.३.४५ में उदाहुन । ४. वही।
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