Book Title: Bharatiya Chintan ki Parampara me Navin Sambhavanae Part 1
Author(s): Radheshyamdhar Dvivedi
Publisher: Sampurnanand Sanskrut Vishvavidyalaya Varanasi
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व्यक्ति और समाज : बौद्ध दृष्टि का एक
वैज्ञानिक विश्लेषण
श्री बी० के० राय थे भगवान बुद्ध कभी एक व्यक्ति, अब तो हैं केवल एक विचार, सूक्ष्मातिसूक्ष्म विचार । व्यक्ति को तो हमने पत्थर बना कर बन्द कर दिया पत्थर की दीवारों में, मढ़ दिया शोभा बढ़ाने के लिए चौखटदार तस्वीरों में, सन्तुष्ट हो गए लम्बी चौड़ी स्तुतियों में कृतज्ञता गाकर, ढक दिया उन्हें गंध-धूप, माला-फूल के अम्बारों में । लेकिन विचार ? विचार व्यक्ति नहीं, शब्द नहीं, अमूर्त चरण चिह्न हैं। वे पढ़े नहीं, कहे नहीं, केवल जिए जा सकते हैं।
थे तब भी, और अब भी है उनका दष्टिकोण विशद्ध व्यक्तिवादी । उनकी वाणी के हर वाक्य की व्याख्या में, उनके जीवन-दर्शन के हर सिद्धान्त के स्रोत में, उनके धर्मोपदेश के हर क्रम के केन्द्र में, उनके सन्देश के हर शब्द के अर्थ में, उनके आत्मप्रयोग के हर प्रेक्षण के निरीक्षण में, उनके अनुभवजन्य ज्ञान के हर सत्य के विश्लेषण में, एक और केवल एक उद्देश्य दीखता है-दुःख का निवारण । हमारा अस्तित्व है इच्छा से, हम हैं सेवक अपनी इच्छा के । इच्छा के साथ अनुकूलता को ही तो सुख और प्रतिकूलता को ही तो दुःख कहते हैं। हम उसी सीमा तक सुखी या दुःखी होते हैं जहाँ तक हमारी इच्छा प्रतिपादित और प्रतिफलित हो पाती है। अतः सुख-दुःख पूर्णतः वैयक्तिक अनुभूतियाँ हैं। इनका सम्बन्ध है केवल व्यक्ति से । सुख-दुःख वस्तु में नहीं द्रष्टा की दृष्टि में होते हैं। वे केवल व्यक्ति-मन की मान्यताएँ हैं। अतः सारा बौद्ध दर्शन व्यक्ति दर्शन है सारा बौद्ध-मार्ग आत्मक्रान्ति का मार्ग है जो प्रारम्भ होता. है व्यक्ति से, और समाप्त भी होता है व्यक्ति ही में ।
उनकी 'निर्वाण' की अवधारणा भी आद्यन्त वैयक्तिक है। उनके आर्यसत्य चतुष्टय का सम्बोध केवल व्यक्ति में ही सम्भव है। उनके दुःखनिरोध का 'अष्टाङ्गिक मार्ग' अत्यन्त व्यक्ति मूलक है । उनके दुःख निदान की 'बारहकड़ी' कोरी व्यक्तिगत शृंखला है । जागृति के स्मृत्युपस्थान, सप्तसम्बोध्यङ्ग, पञ्चेन्द्रिय, शब्दशित शिक्षमाणधर्म सभी केवल व्यक्ति केन्द्रित हैं । उनका मार्ग विश्वास का नहीं विचार और विवेक
परिसंवाद-२
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