Book Title: Bharatiya Chintan ki Parampara me Navin Sambhavanae Part 1
Author(s): Radheshyamdhar Dvivedi
Publisher: Sampurnanand Sanskrut Vishvavidyalaya Varanasi
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भारतीय चिन्तन की परम्परा में नवीन सम्भावनाएँ
जाने पर विवाह किया करती थीं। किन्तु वय-सम्बन्धी निश्चितता के विषय में कोई एक सुदृढ़ नियम न था। ऋग्वेद में ही अल्पवयस्का लड़कियों के विवाह के भी संकेत उपलब्ध होते हैं । कुछ स्त्रियाँ आजीवन अविवाहित रह जाया करती थीं।'
गृह्यसूत्रों के अध्ययन से पता चलता है कि उनके काल में युवती हो जाने के बाद ही स्त्रियों का विवाह होता था, क्योंकि विवाह के अनन्तर कतिपय दिनों के भीतर ही नवपरिणीता के साथ वर के संयोग-संभोग का आदेश मिलता है । वर्ष के भीतर ही पूत्रोत्पादन का आशीर्वाद प्रदान किया जाता था। ई० पू० ६०० से प्रथम शती तक प्रायः युवती स्त्रियाँ ही विवाहित होती थीं, किन्तु बाद में २०० ई० के लगभग (याज्ञवल्क्यस्मृति का काल) यौवन-प्राप्ति के पूर्व ही उनके विवाह का विधान मिलता है। बहुपत्नीकता तथा बहुभर्तृकता
यद्यपि वैदिक साहित्य के आलोडन से यह बात सूर्य की भाँति प्रकाशित हो जाती है कि उन दिनों तक एक पत्नीकता का ही आदर्श था किन्तु बहुपत्नीकता के भी उदाहरण मिल ही जाते हैं । ऋग्वेद तथा अथर्ववेद में पत्नी के द्वारा सौत के प्रति अपने प्राण-प्रिय पति के प्रेम को घटाने के लिये, उसके आकर्षण को सौत की ओर से मोड़ने के लिये मन्त्र पढ़ा गया है। ऋग्वेद से यह बात विदित होती है कि इन्द्र की कई रानियाँ थीं। महाराज हरिश्चन्द्र की पूरी-पूरी एक सौ पत्नियाँ थीं।" बहत सी पत्नियों को एक साथ रखने की यह भगोड़ी प्रथा केवल राजाओं-महाराजाओं तक ही परिसीमित न थी । आर्थिक दृष्टि से सामान्य व्यक्ति भी एक से अधिक पत्नियों का आनन्द लेना चाहते थे। मिथिला के प्रसिद्ध दार्शनिक याज्ञवल्क्य की दो पत्नियाँ थीकात्यायनी एवं मैत्रेयी।
__ सांसारिक सुखों की अभिलाषा-रज्जु प्रत्येक प्राणी के हृदय को जकड़ कर जड़ बना देती है। यद्यपि एक से अधिक पत्नी पालने की प्रथा ऋग्वेद से वर्तमान काल तक अक्षुण्ण रूप से उपलब्ध होती है, तथापि संहिता-काल से लेकर सूत्र-काल तथा
१. साऽहं तस्मिन् कुले जाता भर्तर्यसति मद्विधे । विनीता मोक्षधर्मेषु चराम्येका मुनिव्रतम् ।।
महाभारत, १२, ३२५, १०३ । २. वाल्मीकि रामायण २।११९।३४ । ३. ऋग्वेद १०।१४५ तथा अथर्ववेद ३।१८ । ४. ऋग्वेद १०।१५९ ।
५. ऐतरेय ब्राह्मण ३३।१ ।
परिसंबाव-२
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