Book Title: Bharatiya Chintan ki Parampara me Navin Sambhavanae Part 1
Author(s): Radheshyamdhar Dvivedi
Publisher: Sampurnanand Sanskrut Vishvavidyalaya Varanasi
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भारतीय धर्म-दर्शन का स्वर सामाजिक समता अथवा विषमता ?
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व्यवहार का भेद है वह हमारे यहाँ के व्यवहार सत्य -गत सिद्धान्त और व्यवहार के भेद से आगे नहीं जाता, परमार्थ और व्यवहार के भेद की सीमाओं को नहीं छू पाता । यह बात नहीं कि अन्यत्र परमार्थ और व्यवहार के से भेद की चेतना ही नहीं । पार्मेनिदीस्, अफलातून, कान्ट, हेगेल जैसे दार्शनिक इस प्रकार के भेद को पूर्ण प्रश्रय देते पाये जाते है । किन्तु पश्चिम में दर्शन और जीवन के बीच सम्बन्ध यूँ भी क रहा है, अतः वहाँ सत्यद्वैत समाज के लिए कभी समस्या नहीं बना । इसके विपरीत भारतीय दर्शन का सामान्यतः घोषित उद्देश्य जीवन के आध्यात्मिकीकरण द्वारा मोक्ष का पथ प्रशस्त करना रहा है, अतः यहाँ परमार्थ और व्यवहार के सम्बन्ध का प्रश्न गम्भीर अर्थ रखता है ।
परमार्थं
अब हम प्रस्तुत प्रश्न को सही परिप्रेक्ष्य में देख सकते हैं ।
अच्छा ब्रह्मवाद की दृष्टि से सभी ब्रह्म हैं, अतः वे मूलतः तत्त्वतः सर्वथा समान भी हैं । इसी प्रकार, यदि नित्यमुक्त और नित्यबद्ध - जीव-वादरूपी अपवादों को छोड़ दें, तो कहा जा सकता है कि आत्माओं में तात्त्विक समता का सिद्धान्त भारतीय दर्शन की मूलधारा का सर्वतन्त्र सिद्धान्त है । और भी ज्ञान और भक्ति की पराकाष्ठा की अवस्था में वैषम्य, किसी भी प्रकार का वैषम्य, नहीं रह जाता । एक ऐसी स्थिति आती है जिसे परम साम्य की स्थिति कहा जाता है
तदा विद्वान् पुण्यपापे विधूय निरञ्जनः परमं साम्यमुपैति ॥ '
पुनः, साम्य मूलावस्था है, और वैषम्य या तो अविद्या का और या (जो भी अन्ततः वही बात है) कर्म का खेल है । व्यवहारतः - इतिहासतः भी हमारे शास्त्रकारों का मत है कि आद्ययुग समता का युग था --
समाश्रयं, समाचार, समज्ञानं च केवलम् । तदा हि समकर्माणो वर्णा धर्मानवाप्नुवन् ॥ २
इस समय न राजा था, न राज्य था, न दण्ड था, न दाण्डिक था; सर्वत्र धर्म
ही धर्म था -
नैव राज्यं, न राजा ऽऽसीन्, न च दण्डो, न दाण्डिकः । धर्मेणैव प्रजाः सर्वा रक्षन्ति स्म परस्परम् ॥
१. मुण्डकोपनिषत्, तृतीय मुण्डक १.३ । ३. तत्रैव, शान्तिपर्व ५९·१४ ।
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२. महाभारत, वनपर्व १४९१९ ।
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परिसंवाद - २
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