Book Title: Bharatiya Chintan ki Parampara me Navin Sambhavanae Part 1
Author(s): Radheshyamdhar Dvivedi
Publisher: Sampurnanand Sanskrut Vishvavidyalaya Varanasi
View full book text
________________
२६०
भारतीय चिन्तन की परम्परा में नवीन सम्भावनाएँ
कुसूलधान्यको वा स्यात्, कुम्भीधान्यक एव वा । त्र्यहैहिको वाऽपि भवेत्, अश्वस्तनिक एव वा ॥ चतुर्णामपि चैतेषां द्विजानां गृहमेधिनाम् । ज्यायान् परः परो ज्ञेयो धर्मतो लोकजित्तमः ॥ '
अर्थात् तीन वर्ष, अथवा एक वर्ष, अथवा तीन दिन, अथवा केवल आज के लिए धन सँजोना चाहिए । इनमें से पूर्व - पूर्व की अपेक्षा उत्तर-उत्तर को ज्यायान् मानना चाहिए ।
और इतिहास में उक्त आदर्शो पर चलने वाले ब्राह्मणों की कमी नहीं रही है । अतः ब्राह्मणों को चाहे जो कह लीजिए, शूद्रों का सर्वथा शोषक नहीं कह सकते । वैषम्य और पुनर्जन्मवाद
वस्तुतः हमारे सामाजिक वैषम्यवाद का प्रेरक हेतु प्रतीत होता है हमारा कर्म और पुनर्जन्म सिद्धान्त । समाज में ऊँच-नीच, धनी-निर्धन, सुखी-दुःखी के भेद कर्मजनित हैं, अतः सामाजिक विषमता ही स्वाभाविक है, सामाजिक समता का सिद्धान्त अयक्तिक है । पूर्वकृत - फलानुबन्ध से तीन परिणाम प्रवृत्त होते हैं-जाति, आयु और सुख-दुःख । अब यदि कोई व्यक्ति ब्राह्मण है अथवा शूद्र है तो इसलिए कि उसकी पूर्वजन्म की कमाई ही ऐसी रही है । इसी प्रकार जो सुख भोग रहा है वह पूर्वजन्म में पुण्यात्मा रहा है और जो दुःख भोग रहा है वह पूर्वकृत पापों का दण्ड पा रहा है । ऐसी दशा में सामाजिक समता का क्या प्रश्न ? कारावास में दण्ड भोग रहे आततायी को भला कारावास से समय से पूर्व ही मुक्त कराने के लिए हायतौबा शासन सहन कर सकता है ?
Jain Education International
वस्तुतः कर्म - सिद्धान्त की दृष्टि से पीड़ित पापी सिद्ध होता है और समृद्ध पुण्यात्मा । फलतः पीड़ित से समता के व्यवहार के बदले घृणा के व्यवहार का ही औचित्य सिद्ध होता है । इस प्रकार सहज विषमताएँ विधाता का विधान वन जाती हैं जिनमें हस्तक्षेप मानव की अक्षम्य धृष्टता हो कही जायेगी । विज्ञान जन्मान्ध को भी आँख देने के लिए सचेष्ट है, जबकि कर्म सिद्धान्त अन्धत्व को उचित घोषित कर उसे अहस्तक्षेप्य कर देता है । यदि कोई जीव शूद्र के घर में उत्पन्न हो गया तो उसे आजीवन दासता ही करनी होगी उसे अपनी स्थिति सुधार कर स्वतन्त्र जीवन नहीं दिया जा सकता । मनु कहते हैं
१. तत्रैव ४।७-८ |
परिसंवाद - २
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org