Book Title: Bharatiya Chintan ki Parampara me Navin Sambhavanae Part 1
Author(s): Radheshyamdhar Dvivedi
Publisher: Sampurnanand Sanskrut Vishvavidyalaya Varanasi
View full book text
________________
२४८
भारतीय चिन्तन की परम्परा में नवीन सम्भावनाएं __आगे चलिए । वेद से लेकर गीता पर्यन्त विश्व-मैत्री के अत्यन्त उदात्त उद्गार और आदर्श प्राप्त होते हैं । वेद-मन्त्र लीजिए
मित्रस्याहं चक्षुषा सर्वाणि भूतानि समीक्षे।
मित्रस्य चक्षुषा समीक्षामहे ॥' यहाँ सभी प्राणियों के प्रति मित्र-दृष्टि रखने का उपदेश है । इसी प्रकार
यस् तु सर्वाणि भूतानि आत्मन्येवानुपश्यति । सर्वभूतेषु चात्मानं ततो न विजुगुप्सते ॥ यस्मिन् सर्वाणि भूतानि आत्मैवाभूद् विजानतः।
तत्र को मोहः ? कः शोकः ? एकत्वमनुपश्यत ॥ अर्थात् सभी प्राणियों को अपनी आत्मा में और अपनी आत्मा को सभी प्राणियों में देखना चाहिए, और मानना चाहिए कि अपनी ही आत्मा सभी प्राणियों के रूप में विद्यमान है।
समता का कैसा ऊँचा आदर्श है ? समता की प्राणि मात्र से मैत्री और तदाकारता से अधिक ठोस आधारशिला कहाँ मिलेगी? गीता ने स्थिति और स्पष्ट कर दी है
विद्याविनयसम्पन्ने ब्राह्मणे, गवि, हस्तिनि ।
शनि चैव श्वपाके च पण्डिताः समदर्शिनः ॥ अर्थात् ज्ञानी समदर्शी होता है-विद्वान् ब्राह्मण, गाय, हाथी, कुत्ते और चण्डाल को वह समान देखता है। ऐसी समता यदि आकाश से धरती पर उतर आवे तो सामाजिक समता ही क्यों, प्राणिमात्र से समता का साम्राज्य स्थापित हो जाए। यह तो रही परमार्थ की बात, अब देखिए व्यवहार कैसे सिद्धान्तित हो
व्यवहार
महाभारत में शूद्र और नीच से भी ज्ञान-प्राप्ति का स्वागत किया गया हैप्राप्य ज्ञान ब्राह्मणात्, क्षत्रियाद् वा, वैश्याच्, छूद्रादपि, नीचादभीक्ष्णम् । श्रद्धातव्यं श्रद्दधानेन नित्यं; न अद्धिनं जन्म-मृत्यू विशेताम् ॥
मनु अन्त्यज से भी परम धर्म ग्रहण करने में सङ्कोच न करने का उपदेश देते हैं
१. यजु. ३६.१८ । ३. गीता ५.१८ ।
२. यजु. ४०.७-८ । ४. म० मा०, शान्तिपर्व ३१८.८८ ।
परिसंवाद.-२
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org