Book Title: Bharatiya Chintan ki Parampara me Navin Sambhavanae Part 1
Author(s): Radheshyamdhar Dvivedi
Publisher: Sampurnanand Sanskrut Vishvavidyalaya Varanasi
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भारतीय चिन्तन की परम्परा में नवीन सम्भावनाएँ
सामान्य रूप से प्रचलित न थे । जब कोई शूद्रा कन्या अत्यन्त सुन्दरी हो, उसके सौन्दर्य, शरीर गठन तथा गुणों की चर्चा चतुर्दिक् प्रसरित हो रही हो, तभी कोई उच्चवर्ण का व्यक्ति उसे अङ्गीकार करता था । आखिर आमोद-प्रमोद कूड़ा-कर्कट से नहीं, अपितु चित्ताकर्षक वस्तुओं से ही तो होता है । यहाँ यह स्मरणीय है कि प्राचीन संस्कृत साहित्य में अन्तर्जातीय विवाह के नाम पर जो कुछ छूट दी गई है उसका केवल इतना ही अर्थ है कि उच्च वर्ण के व्यक्ति निम्नवर्ण की स्त्री से विवाह कर सकते थे । कोई भी शूद्र उच्च वर्ण की कन्या के साथ विवाह करने का अधिकारी न था ।
विवाहादि सम्बन्धी यह उदारता सूत्र काल के बाद क्रमशः लुप्त होती गई और स्मृतियों तथा पुराणों के समय तक आते-आते विवाह सम्बन्धी कठोर नियम बन चुके थे । यद्यपि मनुस्मृति में अन्तर्जातीय विवाह की झाँकी यत्र-तत्र देखी जा सकती है, किन्तु कुल मिलाकर जोड़ने-घटाने पर निषेध पक्ष ही प्रबल प्रतीत होता है | 3 विधवा-विवाह
हिन्दू समाज में ॠग्वेद से लेकर आज तक विधवा स्त्रियों की दशा में कुछ विशेष उल्लेखनीय अन्तर नहीं आया है । ऋग्वेद में विधवा की जो कुछ धूमिल झाँकी मिलती है उससे विदित होता है कि वे समाज की उपेक्षिता महिलाएँ थीं। समाज के अवांछनीय तत्त्वों से उन्हें सर्वदा भय बना रहता था । धर्मशास्त्रों तथा पुराणों से विदित होता है कि उन दिनों विधवा स्त्रियों का जीवन कठोर तपस्या का जीवन था । शृङ्गार तथा प्रसाधन की बात तो दूर रही, भर पेट भोजन और आराम की नींद भी उन्हें दुर्लभ थी। तपस्या की तपती आग में शरीर को सुखाकर काँटा बना देना, सौन्दर्य की विकसती कली को भूख की ज्वाला में झुलसा कर सुखा देना ही उनका धर्म था । विवाहादि मांगलिक उत्सवों में उनका दर्शन धूमकेतु की भाँति अमंगलकारी समझा जाता था । यात्रा के आरम्भ में यदि वे सामने आ जायँ तो उनका मिलन सियारिन के दर्शन की तरह अपशकुन माना जाता था । केवल जीवन यात्रा को चलाने भर के लिये आवश्यक सम्पत्ति पर ही उनका अधिकार था । शास्त्रों में विधवा-विवाह के लिये यत्र तत्र चर्चा पाई जाती है । परन्तु इस प्रकार की चर्चा
१. स्त्रीरत्नं दुष्कुलादपि ॥ मनुस्मृति २।२३८ । २. देखिये - मनुस्मृति ३।१३ । ३. न ब्राह्मणक्षत्रिययोरापद्यपि हि तिष्ठतोः । कस्मिंश्चिदपि वृत्तान्ते शूद्रा भार्योपदिश्यते ॥
मनु० ३।१४ ।
४. को वां शयुत्रा विधवेव देवरम् । ऋग्वेद १०|४०|२ |
नारी तु पत्यभावे वै देवरं कृणुते पतिम् । महाभारत १३।१२।१९ ।
परिसंवाद - २
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