Book Title: Bharatiya Chintan ki Parampara me Navin Sambhavanae Part 1
Author(s): Radheshyamdhar Dvivedi
Publisher: Sampurnanand Sanskrut Vishvavidyalaya Varanasi
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भारतीय चिन्तन की परम्परा में नवीन सम्भावनाएँ महाभारत के अनुसार पैजवन नामक एक शूद्र ने ऐन्द्राग्न यज्ञ की समाप्ति पर दक्षिणा के रूप में एक लाख पूर्णपात्र दान किया था।'
पैजवन शूद्र की एक बहुत महत्त्वपूर्ण कथा स्कन्दपुराण के ब्राह्म खण्ड में आती है । कथा का अतिसंक्षिप्त प्रारूप इस प्रकार है-पैजवन विष्णु एवं ब्राह्मणों का पूजक था। उसके पास विशाल सम्पत्ति थी। उसका व्यापार अपने देश के भीतर तथा बाहर भी चला करता था। सम्पत्ति देकर वह दूसरे लोगों को भी व्यापार करने की प्रेरणा दिया करता था। व्यापार से उसने विपुल सम्पत्ति अजित की थी। वह नित्य देव-पूजा करता तथा दान देता था। देवमन्दिरों का भी वह निर्माण करवाता था। एक बार उसके घर गालव मुनि पधारे। उन्होंने पैजवन से कहा--'चातुर्मास्य में तुम्हें विष्णु की कथा का सेवन करना चाहिए, विष्णु की स्तुति, पूजा ध्यान और शालग्राम की अर्चना भी करनी चाहिए।' इस पर पैजवन शुद्र ने कहा-'मैं शूद्र हूँ। अतः शालग्राम विष्णु की पूजा कैसे कर सकता हूँ ?' गालव मुनि ने व्यवस्था की-'ब्राह्मण, क्षत्रिय एवं वैश्य की भाँति सदाचारी शूद्र भी शालग्राम-शिला को पूजा कर सकता है।'
इस कथानक से जो कतिपय तथ्य सामने आते हैं, उनसे स्पष्ट प्रतीत होता है कि यद्यपि शूद्रों को वेदों के अध्ययन एवं उनके मन्त्रोच्चारण का अधिकार महाभारत के समय तक पहुँचते पहुंचते समाप्त हो चुका था। किन्तु यज्ञ करने, दक्षिणा देने, एवं मूर्ति पूजा आदि का अधिकार शूद्रों को भी ब्राह्मण आदि के समान ही उपलब्ध था। वे उस तरह अछूत न थे जैसा कि कालान्तर में व्यवहार किया जाने लगा। स्मृति-कारों ने शूद्रों को कूप, बावली आदि के निर्माण कराने तथा मन्त्रों के बिना कुछ सामान्य धार्मिक कृत्यों के संपादन का ही अधिकार प्रदान किया है । शूद्र एकमात्र गृहस्थ आश्रम ही ग्रहण करने का अधिकारी था। शूद्र एवं सरकारी नौकरियाँ और न्यायालय
अन्य वर्गों की भाँति शूद्र भी सरकारी नौकरियों में स्थान पा सकते और समानता के अधिकार के साथ रह सकते थे। कम से कम सरकारी सेना में तो उनकी ऐसी ही स्थिति थी। सम्भवतः राजा की सेनाओं में एक दल शूद्र सेना का भी रहता था।
प्राचीन समय में न्यायालयों की भी समुचित व्यवस्था थी। इन न्यायालयों में देश की सारी प्रजा अपने लिये न्याय की माँग कर सकती थी। न्यायालय के समक्ष १. शान्तिपर्व ६०३९। २. देखिये-मृच्छकटिक ६।२३। ३. कौटिल्य-९।२ । परिसंवाद-२
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