Book Title: Bharatiya Chintan ki Parampara me Navin Sambhavanae Part 1
Author(s): Radheshyamdhar Dvivedi
Publisher: Sampurnanand Sanskrut Vishvavidyalaya Varanasi
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व्यक्ति और समाज के व्यक्तिवादी, समष्टिवादी तथा समन्वयवादी स्वरूप का विवेचन १७३ की मर्यादाओं तथा उनके कर्तव्यों और अधिकारों की रक्षा और पुष्टि शान्ति व्यवस्था और अभिवृद्धि के लिए नितान्त आवश्यक है।
इस युग के अधिकांश नेता विशेषतः महामना मालवीयजी, महात्मा गांधी और आचार्य नरेन्द्रदेव इसी समन्वित अवधारणा के समर्थक थे। तीनों ही प्राचीन भारतीय संस्कृति की उदात्त मान्यताओं से अनुप्राणित थे। आचार्य नरेन्द्रदेव का चिन्तन मूलतः समाजवैज्ञानिक था, पर उस पर बौद्धदर्शन की भी छाप थी। गांधी
और मालवीय का चिन्तन बहुत हद तक धार्मिक था। उन्होंने आधुनिक युग की आवश्यकताओं के सन्दर्भ में प्राचीन भारतीय संस्कृति और धर्म के प्रमुख सिद्धान्तों और मान्यताओं की कालानुकूल व्याख्या करते हुए सतत् सत्प्रयत्नों द्वारा समाज और व्यक्ति के समन्वित सर्वांगीण विकास करने का उपदेश और आदेश दिया। ये दोनों कर्म का सिद्धान्त स्वीकार करते थे। पर भाग्यवाद के विरोधी और पुरुषार्थ के समर्थक थे। हमारे शास्त्रकारों ने ज्ञाता, ज्ञान और ज्ञेय इन तीनों को कर्म का प्रेरक बताया है। उनके विचार में उनके संयोग से कर्म में प्रवृत्त होने की इच्छा होती है तथा कर्ता, उपकरण और क्रिया के संयोग से कर्म बनता है। उनके विचारों के अनुसार मानवयोनि भोगयोनि ही नहीं, बल्कि कर्मयोनि भी है। इस योनि में मानव सत्कर्मों द्वारा पुराने कर्मों के बुरे प्रभावों का डटकर प्रतीकार कर सकता है। इस जीवन में ही जीवनमुक्त और बोधिसत्त्व का गौरव प्राप्त कर सकता है तथा अनारब्ध कर्मों की प्रक्रियाओं का अन्त कर निर्वाण और मोक्ष प्राप्त कर सकता है। ये तीनों महापुरुष चाहते थे कि हम, अहंवाद त्याग कर निस्पृह भाव से धैर्य और उत्साह के साथ मानव और समाज के सर्वतोमुखी उत्थान में जुट जाएँ।।
मानव और समाज के सम्बन्धों की यह समन्वित अवधारणा यदि सर्वथा बौद्ध दष्टि के अनुरूप नहीं है तो अन्य सब अवधारणाओं की तुलना में वह उसके निकटतम अवश्य है । इस समन्वित अवधारणा को अहिंसा, करुणा, निष्काम भावना, तथा बहुजनहित आदि कल्याणकारी बौद्ध धारणाओं से विभूषित कर इसे विकसित और बौद्ध दृष्टिकोण के अधिक निकट लाया जा सकता है।
इन तीनों प्रकार की अवधारणाओं को किसी न किसी रूप में दार्शनिकों और समाजवैज्ञानिकों ने प्रतिपादित, विकसित और पुष्ट किया है। दार्शनिकों की अपने ज्ञान के सम्बन्ध में क्या धारणा है ? यह तो हम नहीं बता सकते हैं। समाज वैज्ञानिक तो अपने को अल्पज्ञ और अपने ज्ञान को सापेक्षिक समझते हैं। वे पूर्ण सत्य के अस्तित्व पर सन्देह करते हैं और मुक्त कंठ से कहते हैं कि सापेक्षिक सत्य का ज्ञान ही अल्पज्ञ मानव के लिए सम्भव है। गांधीजी पूर्ण सत्य की अवधारणा स्वीकार करते
परिसंवाद-२
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