Book Title: Bharatiya Chintan ki Parampara me Navin Sambhavanae Part 1
Author(s): Radheshyamdhar Dvivedi
Publisher: Sampurnanand Sanskrut Vishvavidyalaya Varanasi
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सामाजिक समता का प्रश्न : प्राचीन एवं नवीन । पर पुनर्जन्म की भी तार्किक व्याख्या होने लगी। पुनर्जन्म के सत्य होने न होने के सम्बन्ध में विचार करने का यहाँ प्रसंग नहीं है। यहाँ प्रसंग है कर्मवाद को अधिकाधिक सुसंगत रखने की। इस प्रकार के कर्मवाद में दो प्रकार की तार्किक त्रुटियाँ समझी जाती हैं । प्राचीनकाल में भी दृष्ट कारणों के रहते अदृष्ट कारणों की खोज को असंगत माना गया । आधुनिक काल में जैसे-जैसे भौतिक-विज्ञान एवं मानवविज्ञानों के नये-नये तथ्य ज्ञात होते जा रहे हैं, वैसे-वैसे पहले के अदृष्ट एवं अज्ञात दृष्ट एवं ज्ञात कोटि में आते जा रहे हैं। इससे अवश्य ही परलोक की कल्पना का विस्तार घटता जाना चाहिए किन्तु इस तथ्य की ओर ध्यान नहीं दिया जा रहा है। इसी प्रकार यह मानना कि व्यक्ति अनिवार्यतः स्व-कृत कर्मों का ही फल भोगता है, यह सिद्धान्त मानव समाज के बीच दूरी घटते जाने और उनके बीच नये-नये सूक्ष्म एवं व्यापक संबंधों के बढ़ते जाने के साथ संशोधनीय हो चुका है, इसकी ओर हमें ध्यान देना होगा। इन परिवर्तनों के साथ प्राचीन ऐहिकतावाद के स्वरूप में भी बहुत कुछ परिवर्तन आ चुका है, क्योंकि जीवन की ऐहिकता में भी बहुत प्रकार के अदृष्टों का समावेश हो चुका है, जिनकी साक्षी हैं-भौतिक एवं मानव-विज्ञानों की नयी उपलब्धियाँ ।
ऊपर वणित तार्किक एवं तथ्यात्मक परिवर्तनों के परिप्रेक्ष्य में निष्कर्ष के रूप में कुछ ऐसी सम्भावनायें संकेतित होती हैं, जिनके आधार पर हम भारतीय चिन्तन परम्परा में समता के सम्पूर्ण सामाजिक पक्षों पर नवीन सन्दर्भ में अपना विश्लेषण प्रस्तुत कर सकते हैं, जिससे इस विषय को अन्य अर्वाचीन विचारकों से अधिक गम्भीर एवं व्यापक आयाम मिल सके । इन तथ्यों के स्वीकार करने में कोई कठिनाई नहीं होनी चाहिये कि समता एव स्वतन्त्रता एक नैतिक एवं सांस्कृतिक मूल्य हैं, जिनका क्षेत्र नितान्त मानवीय एवं सामाजिक है, किन्तु उसका उद्गम स्रोत मनुष्य-जाति का वह अन्तरतम अध्यात्म है, जिसे सहस्राब्दियों में अपने गहन चिन्तन एवं प्रातिभ अनुभवों में संचित किया है । उस संचित निधि का यदि नवीन सन्दर्भ में नवीन विचारों के साथ योग स्थापित किया जा सके, तो वह नितान्त स्वाभाविक होगा। इस स्थिति में आधुनिकता के प्रति किसी प्रकार का आक्रोश प्रदर्शन न करके अपनी चिन्तन परम्परा के वास्तविक सामर्थ्य का पुनः मूल्यांकन करना होगा।
__ उक्त दिशा में हमें इसका निर्णय लेना होगा कि आध्यात्मिक-समता या समत्व के साथ सामाजिक समता का सम्बन्ध क्या है ? निर्वाण या मोक्ष जो आध्यात्मिक समत्व का आदर्श माना जाता है, उसका सामाजिक मूल्य क्या है ? इस सन्दर्भ में हम उन ऐतिहासिक अनैतिहासिकमुक्त पुरुषों के चरित्र को आधार मानकर कुछ
परिसंवाद-२
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