Book Title: Bharatiya Chintan ki Parampara me Navin Sambhavanae Part 1
Author(s): Radheshyamdhar Dvivedi
Publisher: Sampurnanand Sanskrut Vishvavidyalaya Varanasi
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२.२४
भारतीय चिन्तन की परम्परा में नवीन सम्भावनाएं हमारे प्राचीन ग्रन्थों में राजा के उद्गम के विषय में प्रधानतया दो मत मिलते हैं-(१) राजा का चुनाव होता था और (२) राजा दैवी अधिकार से सम्पन्न माना जाता था।
(१) ऋग्वेद (१०।१७३) तथा अथर्ववेद (६८७ एवं ८८।१-२) में राजा के चयन के विषय में किञ्चित् धुंधला संकेत उपलब्ध होता है। अथर्ववेद के एक दूसरे स्थल पर राजा के निर्वाचन का कुछ स्पष्ट संकेत देखा जा सकता है-लोग राज्य करने के लिये तुम्हें चुनते हैं, ये दिशाएँ, ये पंच देवियाँ तुम्हें चुनती हैं । भद्र लोग, सूत, ग्राम-मुखिया, रथकार, धातुनिर्माता आदि राजा का चयन करते थे, ऐसी ध्वनि अथर्ववेद में मिलती है । तैत्तिरीयब्राह्मण (११७३) में राजा के निर्माता को 'रनिन्' कहा गया है। ये रत्नी लोग ही राजा को राज्य देते थे । इन स्थलों से यह बात समर्थित होती है कि राजा भद्र-वर्ग, उच्च कर्मचारियों तथा सामान्यजनों से राज्य पाता था।
वैदिक युग की परिसमाप्ति तथा लौकिक साहित्य के ठीक उषाकाल तक आतेआते राजत्व-पद आनुवंशिक हो चला था। अब राजा के निर्माता एवं भाग्यविधाता के रूप में सामान्य जनता की सम्मति का पूर्व मूल्य न रह गया था। फिर भी जनता की राय अभी, अब भी आवश्यक थी। अयोध्या के चक्रवर्ती सम्राट महाराज दशरथ ने अपने निश्चय के समर्थन के लिये उस समय नागरिकों की एक सभा बुलाई थी, जब वे राम का राज्याभिषेक करना चाहते थे ।
महाभारत के आदिपर्व के अनुसार जब महाराज परीक्षित की मृत्यु हो गई उस समय राजधानी के नागरिकों ने एकत्रित हो उनके अल्पवयस्य बालक जनमेजय को अपना राजा चुना । बालक जनमेजय उस समय अपने मन्त्रियों एवं पुरोहितों की सहायता से राज्य करता था।
महाभारत के अध्ययन से पता चलता है कि प्राचीन समय में जनता के द्वारा निर्वाचित किये जाने पर राजा सबके समक्ष यह शपथ लेता था कि 'मैं मन, वाणी और क्रिया द्वारा भूतलवर्ती ब्रह्म (वेद) का निरन्तर पालन करूँगा । वेद में दण्डनीति
१. त्वां दिशो वृणतां राज्याय त्वामिमाः प्रदिशः पञ्च देवाः ३।४।२। २. ये राजानो राजकृतः सूता ग्रामण्यश्च ये । उपस्तीन् पर्ण मह्यं त्वं सर्वान् कृण्वमितो
जनान् ॥ ३।५।७। ३. रत्निनामेतानि हवींषि भवन्ति । एते वै राष्ट्रस्य प्रदातार': ।१७।३ । ४. देखिये-अयोध्याकाण्ड १-२। ५. महाभारत आदिपर्व-४४।६ ।
परिसंवाद-२
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