Book Title: Bharatiya Chintan ki Parampara me Navin Sambhavanae Part 1
Author(s): Radheshyamdhar Dvivedi
Publisher: Sampurnanand Sanskrut Vishvavidyalaya Varanasi
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भारतीय चिन्तन की परम्परा में नवीन सम्भावनाएँ इतने के बाद भी भारतीय इतिहास में कभी यह नहीं देखा गया कि समता मानवाधारित होकर समाज-व्यवस्था का रूप ग्रहण की हो। श्रमणों में बौद्धों का आन्दोलन सर्वाधिक तीव्र एवं कालव्यापी था। यह सत्य है कि उनका मानव केन्द्रित विचार तथा समतावादी दृष्टि आज भी विश्व-मानव को प्रभावित करती है, किन्तु यहाँ एक मात्रा के बाद उसका प्रभाव अस्त हो गया। इसका दोष जिन कारणों में खोजा जाता है, उनमें एक बौद्धों का वैराग्यवादी होना भी बताया जाता है। कहा जाता है कि बौद्धों ने आध्यात्मिक और धार्मिक स्तर पर विषमतापूर्ण मान्यताओं का अवश्य विरोध किया, किन्तु सामाजिक स्तर पर उनके द्वारा यह संभव नहीं हो सका, क्योंकि सामाजिक समस्याओं के प्रति श्रमण या तो उदासीन थे या उनमें सामाजिक विषमताओं से जूझने के लिए अपेक्षित क्षमता नहीं थी। जो कुछ हो, भारतीय इतिहास में विषमता विरोधी आन्दोलनों की एक सीमा देखी गयी। यह भी देखा गया कि विगत शताब्दियों में उत्तर और दक्षिण भारत में उदारवादी सन्तों का प्रादुर्भाव हुआ, किन्तु उनका प्रभाव बहुत ही सीमित था। उन्होंने सामाजिक विषमता के प्रति व्यंग्य अवश्य किया, किन्तु वे उस प्रश्न को सामाजिक स्तर पर उभार न पाये। विफलता के कारणों के अन्वेषण में बरबस कर्मवाद की मान्यता की ओर ध्यान आकृष्ट होता है। बिना अपवाद के सभी भारतीय धर्म एवं दर्शनों ने कर्मवाद को स्वीकार किया है। कहा जाता है कि सामाजिक एवं व्यक्तिगत विषमता के पीछे अदृष्ट कर्मों के फल की मान्यता एक प्रधान हेतु है। इस स्थिति में कर्मवाद से सामाजिक-समता के आधुनिक सन्दर्भ में तालमेल बैठ नहीं सकता। सामाजिक-विषमता के प्रसंग में अवश्य ही इस मान्यता की समीक्षा करनी होगी।
भारतीय नीति-मीमांसा में कर्मवाद का महत्त्वपूर्ण स्थान है। अपराध एवं दण्ड की व्यवस्था का यह तार्किक सिद्धान्त है। इसके द्वारा मनुष्य का उत्तरदायित्व बढ़ता है और रहस्यवादी शक्तियों का महत्त्व घटता है। यही कारण है कि अनीश्वर एवं अनात्मवादियों ने अन्यों की अपेक्षा कर्मवाद की स्थापना में अधिक बल लगाया। किये अपराध का ही दण्ड मनुष्य को प्राप्त हो, किसी भी स्थिति में न किये का वह दण्ड-भागी न बने। इस व्यवस्था के बीच किसी अतिरिक्त शक्ति की कृपा या अभिशाप का हस्तक्षेप न हो-इसकी व्यवस्था करना कर्मवाद का उद्देश्य है। इस नियम को अधिक दोष-हीन रखने की दृष्टि से मनुष्य के उन भोगों के अतीत कारणों की या वर्तमान उन कर्मों के अनागत फलों की खोज में अदृष्ट कर्मों एवं फलों की कल्पना की गयी, जिनका कर्म या भोग ऐहिक जीवन में दृष्ट नहीं था। इस प्रकार के अदृष्टों को सुसंगत करने के लिए पुनर्जन्म का विश्वास सहायक हुआ। फलतः उसके आधार परिसंवाद-२
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