Book Title: Bharatiya Chintan ki Parampara me Navin Sambhavanae Part 1
Author(s): Radheshyamdhar Dvivedi
Publisher: Sampurnanand Sanskrut Vishvavidyalaya Varanasi
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सामाजिक संघटन की उत्पत्ति और बौद्ध दृष्टिकोण
डॉ० प्रतापचन्द्र
अनेक व्यक्त तथा अव्यक्त कारणों से भारतविदों का एक बड़ा वर्ग पालि त्रिपिटक में संगृहीत समाज दर्शन परक विचारों की अनदेखी करता आया है । प्राचीन भारत में सामाजिक संगठन सम्बन्धी चर्चाएँ सामान्यतः कुछ इने गिने संस्कृत ग्रन्थों को आधार मानकर होती आयी है । इस एकाकीपन को श्लाघ्य मानना कठिन है | इसका निदान किये बिना प्राचीन भारतीय समाज दर्शन का एक समग्र-ग्राही संतुलित तथा वस्तुनिष्ठ चित्र भी विकसित नहीं हो सकेगा। समाज की उत्पत्ति, प्रयोजन, वर्णव्यवस्था, विभिन्न वर्गों के कर्तव्य आदि अनेक प्रश्नों पर प्राचीन भारतीय मनीषी एकमत नहीं थे । वैज्ञानिक इतिहास लेखन यह माँग करता है कि विविधता को एक काल्पनिक समरूपता के आवरण में छिपाने के स्थान पर उसका उचित सम्मान किया जाय ।
यह प्रश्नातीत है कि आदि बौद्धों (थेरवादियों) का ध्यान मुख्य रूप से उस अन्तिम लक्ष्य पर केन्द्रित था जिसे प्राप्त करने के उद्देश्य से ही नर-नारी अपना सर्वस्व त्याग कर संघ में सम्मिलित हो रहे थे । अस्तित्व मात्र की मौलिक एवं अनिवार्य दुःखमयता तथा उससे मुक्ति का उपाय - ये निश्चय ही ऐसे विषय हैं जो गहरी लगन तथा एकाग्रता की अपेक्षा रखते हैं । इसके बावजूद त्रिपिटक में ऐसे प्रसंगों का अभाव नहीं है जिनका इन परम लक्ष्यों से प्रत्यक्षतः कोई सम्बन्ध दिखाई नहीं देता । यह भी एक प्रचलित धारणा है कि तथागत सिद्धान्ततः तत्त्वमीमांसा तथा विश्व-विज्ञान परक प्रश्नों में उलझने के विरुद्ध थे क्योंकि उनकी दृष्टि में इनका निर्वाण प्राप्ति से कोई सरोकार नहीं है । मैंने अन्यत्र बुद्ध के तथाकथित 'मौन' का विशद विश्लेषण प्रस्तुत किया है' । यहाँ इतना ही कहना पर्याप्त होगा कि मेरे विचार में बुद्ध विश्व-विज्ञान के प्रति उदासीन नहीं थे । परिब्राजक होते हुए भी सुगत तथा उनके सहकर्मी समाज से हटे हुए नहीं थे । वे अपनी युगान्तरकारी कुशाग्र बुद्धि द्वारा अपनी परिस्थितियों का विश्लेषण करते थे तथा जिसे अनुचित समझते थे, उसका
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१. द आर्यन पाथ ( बम्बई) के १९६९ के दो अंकों (जुलाई-अगस्त तथा सितम्बर-अक्टूबर में प्रकाशित लेखक का निबन्ध 'द अलेन साइलेन्स आव द बुद्ध' ।
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परिसंवाद - २
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