Book Title: Bharatiya Chintan ki Parampara me Navin Sambhavanae Part 1
Author(s): Radheshyamdhar Dvivedi
Publisher: Sampurnanand Sanskrut Vishvavidyalaya Varanasi
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व्यष्टि एवं समष्टि के सन्दर्भ में ब्रह्मविहार, बोधिचित्त और ज्ालता चण्डाली
डॉ० सुनीतिकुमार पाठक बौद्ध-साधना की दृष्टि से व्यक्ति और समाज का भारतीय सामाजिक विकास के आधार पर विशेष महत्त्व है। ई० पूर्व ५ वीं सदी से लेकर अब तक बौद्ध साधना की परम्परा चली आ रही है। अतः सामाजिक परिवर्तन के साथ-साथ बौद्ध धर्मदर्शन में भी विचार बदलते गये हैं जिससे बौद्ध विनयधरों की अलग-अलग परम्पराएँ बनी थीं। भिक्षु संघ में सम्प्रदाय भेद, दार्शनिक विचारों का खंडन-मंडन, त्रियान और अयान के विकास विभिन्न रूप में मिलते हैं । परन्तु बौद्ध-साधना की दृष्टि से तरह-तरह की परम्पराएँ होने पर भी मूलधारा में कोई बाधा नहीं पहँची थी। इसके स्पष्टीकरण के लिए 'ब्रह्मविहार', 'बोधिचित्त' और 'ज्वलिता चण्डाली' ये तीन शब्द चुने गये हैं। जिसमें बौद्ध-साधना की मूलधारा की गति का निर्णय किया जा सकता है। इस साधना के द्वारा भारतीय व्यक्ति और समाज किस प्रकार प्रभावित हुआ था इसका एक अध्ययन प्रस्तुत किया जा रहा है।
सामान्यतः यह कहा जाता है कि भारतीय धर्म और साधना में 'मोक्ष' 'मुक्ति' एवं 'विमोक्ष' शब्दों में ही व्यक्ति का उद्देश्य सूचित है। कारण, संसार बन्धन है, उससे मोक्ष अर्थात् मुक्ति मिलती है। जब भव-बन्धन प्रत्येक जीव का बन्धन है, तब उससे मोक्ष प्रत्येक जीव का अलग-अलग ही मोक्ष है। इस प्रकार निर्वाण भी वैयक्तिक है, सामाजिक नहीं है, यह दृष्टि बड़ी सामान्य दृष्टि है । अन्ततोगत्वा यह प्रमाणित है कि बौद्ध साधना तथा भारतीय साधना में सामाजिक कल्याण या "बहुजनहित बहुजनसुख" ही सिद्ध है। बौद्वदृष्टि से यह सिद्धांत 'ब्रह्मविहार', 'बोधिचित्त' और 'ज्वलिता चण्डाली' शब्दों के द्वारा देशित है। ब्रह्मविहार
भगवान् बुद्ध ने जो कुछ देशना दी थी वह त्रिपिटिक में उपलब्ध है। इस संकलन का ऐतिहासिक मूल्यांकन आज इतना जरूरी नहीं है, क्योंकि परम्परागत रूप से तरह-तरह के संस्करण अलग-अलग भाषा में मिलते हैं। लेकिन बौद्ध साधना की दृष्टि में इनमें भेद नहीं मालूम पड़ता है। जैसे ब्रह्मविहार, बोधिचित्त आदि की परिसंवाद-२
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