Book Title: Bharatiya Chintan ki Parampara me Navin Sambhavanae Part 1
Author(s): Radheshyamdhar Dvivedi
Publisher: Sampurnanand Sanskrut Vishvavidyalaya Varanasi
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भारतीय चिन्तन की परम्परा में नवीन सम्भावनाएं (५) बौद्धमतानुसार व्यक्ति स्वलक्षणतत्त्वों का एक स्कन्ध अर्थात् परस्पर सम्बन्ध रहित संनिवेश है इसे अंग्रेजी में कनफीगुरेशन या गेस्टाल्ट कह सकते हैं। अपने-अपने स्थानों में स्थित बिन्दु मात्रों से जैसे त्रिकोण, चतुष्कोण, वर्ग आदि आकृतियाँ अभिव्यक्त होती हैं वैसे ही व्यष्टियों के उचित संनिवेश मात्र से व्यक्तित्व का आविष्कार हुआ करता है। व्यक्ति जैसे एक समष्टि है वैसे ही समाज भी एक समष्टि या समष्टियों की समष्टि है। समाज का भी व्यक्ति के समान एक संनिवेश के रूप में ही अस्तित्व मानना चाहिए। एक स्वतन्त्र इकाई के या वस्तु के रूप में समाज की कोई सत्ता नहीं है किन्तु जैसे विभिन्न संस्कार व्यक्तित्व घटक तत्त्वों को सम्बन्धरहित संनिवेश में जकड़े रहते हैं वैसे ही सामाजिक नियम निर्बन्ध अर्थात् कुछ संस्कार ही व्यक्तियों की सामाजिक संघटना के लिए उत्तरदायी होते हैं।।
(६) रसेल के समाजरचना सम्बन्धी विचार अतीव महत्त्वपूर्ण हैं किन्तु उनका उसके तार्किक अणुवाद के साथ कोई सम्बन्ध प्रतीत नहीं होता। समाज रचना तथा समाज स्थिति के नियमन में तार्किक प्रक्रिया का विशेष स्थान नहीं माना जा सकता। व्यक्ति की सामाजिक चेतना का विकास अपने आप अतार्किक ढंग से घटित होने में ही औचित्य तथा स्वाभाविकता है। इसीलिए वासना और तज्जनित संस्कारों को समाजनिर्मायक तथा समाजधारक मानना बौद्धों ने उपयुक्त ठहराया है।
(७) प्रत्येक बुद्ध के आदर्श के औचित्य का स्पष्टीकरण स्वलक्षण स्कन्धरूप समाज के संप्रत्यय के आधार पर अच्छी तरह किया जा सकता है । व्यष्टि और स्कन्ध परस्पर सापेक्ष जरूर है लेकिन इन दोनों की परस्पर सापेक्षता की तुलना करने पर स्पष्ट हो जायेगा कि व्यक्ति की स्कन्ध सापेक्षता की अपेक्षया स्कन्ध की व्यक्ति सापेक्षता अधिक है। अतः व्यक्ति के आध्यात्मिक विकास की प्रक्रिया में ऐसी अवस्था आना अनिवार्य है जब व्यक्ति स्कन्ध बहिर्भूत हो अपनी पूर्णता की ओर अग्रसर होता है।
२-परिसंवाद
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