Book Title: Bharatiya Chintan ki Parampara me Navin Sambhavanae Part 1
Author(s): Radheshyamdhar Dvivedi
Publisher: Sampurnanand Sanskrut Vishvavidyalaya Varanasi
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भारतीय चिन्तन की परम्परा में नवीन सम्भावनाएं संस्थाओं एवं संगठनों के प्रयोग पर प्रयोग चलते रहे हैं, पर आर्थिक विकास की गति अवरुद्ध ऊर्ध्वगामी स्थिरता प्राप्त नहीं कर पाई है। आर्थिक विकास के प्रयत्नों के साथ आर्थिक एवं राजनीतिक क्षेत्रों में भ्रष्टाचार उत्तरोत्तर बढ़ा है । सरकारी संगठनों में अनुशासनहीनता बढ़ी है और अपने काम के प्रति लगाव घटा है। किसी भी कार्यालय में समय पर काम साधारणतः नहीं होता और अक्सर काम कराने के लिए घूस अथवा उन सामाजिक सम्बन्धों का सहारा लेना पड़ता है जो कर्मचारियों से अपने स्वार्थों को पूरा कराने के लिए स्थापित किये जाते हैं। सार्वजनिक क्षेत्र के सभी औद्योगिक संगठनों में ये रोग पूर्णतः व्याप्त हैं और समाजवाद के नाम पर अधिक से अधिक संगठन सार्वजनिक क्षेत्र में लाये जा रहे हैं। पर ये सभी संगठन सार्वजनिक हितों की पूर्ति के बजाय वैयक्तिक हितों की पूर्ति के विशेषतया साधन बन गये हैं।
इन समस्याओं के साथ ही हमें राजनीतिक भ्रष्टाचार एवं दल बदल से उत्पन्न राजनीतिक अस्थिरता और उद्देश्यहीनता पर भी विचार करना चाहिए, क्योंकि राजनीतिक अस्थिरता एवं समष्टि के हित की भावना का अभाव भी सरकारी संगठनों की अराजकता और भ्रष्टाचार को बढ़ाता है तथा आर्थिक विकास को अवरुद्ध करता है। अभी-अभी लोक सभा के चुनाव समाप्त हुए हैं । यह सर्वमान्य सत्य है कि ये चुनाव भ्रष्टाचार पर आधारित हैं। चुनाव में लड़ने वाले उम्मीदवार और दल चुनावों को लड़ने के लिए कहाँ से धन लाते हैं कौन इन्हें और क्यों धन देता है ? इन प्रश्नों के उत्तर अज्ञात नहीं हैं। जो भी पूंजीपति इन्हें धन देता है, वह इन सांसदों से व्यक्तिगत लाभ उठाना चाहता है।
इसके अलावा कम से कम १९६७ से शनैः शनैः भारतीय राजनीति सिद्धान्तहीन होती जा रही है। अब यह स्थिति आ गई है कि प्रत्येक राजनयिक जिधर अपने स्वार्थों की पूर्ति देखता है उधर लुढ़क जाता है। सभी दल समाजवाद, जनतन्त्र और धर्मनिरपेक्षता की दुहाई देते हैं, जब कि सभी दलों और उनके सदस्यों की मूलनिष्ठा अवसरवाद में है और उपर्युक्त सभी नारे अवसरवाद के आवरण बन कर रह गये हैं। इससे अधिक हास्यास्पद बात क्या होगी कि लोकदल की उत्तर प्रदेश की सरकार दसवीं कक्षा तक की शिक्षण संस्थाओं में संस्कृत के स्थान पर उर्दू के अध्यापन की आज्ञा निकालती है, क्योंकि मुसलमानों के मत चुनाव जीतने के लिये चाहिये, जब कि उसी लोकदल का कार्यवाहक प्रधान मन्त्री चरण सिंह कहता है कि यह आज्ञा अनुचित है। यदि वह वस्तुतः इसे अनुचित मानता है तो उत्तरप्रदेश के परिसंघाव-२
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