Book Title: Bharatiya Chintan ki Parampara me Navin Sambhavanae Part 1
Author(s): Radheshyamdhar Dvivedi
Publisher: Sampurnanand Sanskrut Vishvavidyalaya Varanasi
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सामाजिक संघटन की उत्पत्ति और बौद्ध दृष्टिकोण
१०५ है कि आदि बौद्धों को 'पुरुष-सूक्त' में वर्णित सामाजिक संघटन तथा उसके आधार का न्यूनाधिक ज्ञान था। समाज दर्शन की पदावली में इसे 'अवयवी एकता का सिद्धान्त' कहा जाता है। इसकी विशेषता यह मानने में है कि समाज की रचना मानव ने नहीं किसी पारलौकिक सत्ता ने की है। यह व्यवस्था इस प्रकार अन्ततः दैवी बन जाती है जिसमें परिवर्तन मानव के अधिकार क्षेत्र के बाहर की बात हैं। यही दृष्टिकोण गीता के उस प्रसिद्ध उद्धरण में भी देखा जा सकता है जिसमें वर्गों की सृष्टि समझायी गयी है। इस सिद्धान्त को संवाद के पूर्वार्द्ध में मेरी समझ में पूर्वपक्ष के रूप में रक्खा गया है, क्योंकि बुद्ध की विचारधारा इसके ठीक विपरीत है। ऐसा लगता है कि आधुनिक मनीषियों की ही भाँति आदि बौद्ध भी इस बात को समझ चुके थे कि सच्चा मानव-साम्य अवयवी-एकता के सिद्धान्त के आधार पर स्थापित नहीं किया जा सकता। तथागत ने अपने उत्तर में पहले यह सिद्ध कर दिया है कि जैविक दृष्टि से ब्राह्मणों तथा अन्य मनुष्यों में कोई अन्तर नहीं होता। अतः ऊँच-नीच का प्रश्न निराधार है इसके बाद वे भी समाज को चार वर्णों का आकलन बताते हैं, किन्तु इस महत्त्वपूर्ण अन्तर के साथ कि पाप कर्म तथा सदाचरण चारों में समान रूप से पाया जाता है और यह भी कि अर्हत्व पर हर मनुष्य का समान रूप से अधिकार है । बुद्ध के स्वर से यह स्पष्ट प्रतीत होता है कि वे जो कुछ कह रहे हैं वह प्रचलित धारणा से भिन्न है। यह भी स्पष्ट है कि उत्तरार्द्ध में वर्णित विश्वविकास की प्रक्रिया पूर्वार्द्ध की स्थापनाओं के समर्थन हेतु ही है। शेष चार बातें इस प्रक्रिया से सम्बद्ध हैं।
(१) इतिहास को दो दृष्टियों से देखा गया है : अनुरेख अर्थात् एक सरल रेखा के रूप में, और आवर्ती अर्थात् एक चक्र के रूप में । पहली दृष्टि सेमिटिक धर्मों की विशेषता है। इसके अनुसार जो कुछ भी होता है, पहली ही बार होता है और दोबारा कभी नहीं होगा। आवर्ती दृष्टिकोण प्राचीन भारत तथा ग्रीस की विशेषता है, और यही बौद्ध विचारधारा में भी परिलक्षित होता है। जिस प्रकार मन्वन्तर सिद्धान्त के अनुसार चार युग एक चक्र की भाँति धूम रहे हैं, उसी प्रकार बुद्ध भी एक सतत् प्रक्रिया की बात करते हैं, यद्यपि युगों का नाम नहीं लेते । यही नहीं, जैसे सतयुग की अपेक्षा त्रेता, त्रेता को अपेक्षा द्वापर तथा द्वापर की अपेक्षा कलियुग निम्न कोटि के हैं, वैसे ही इस बौद्ध चित्र में भी पतन की शृंखला दिखाई देती है। प्रारम्भ में सब अच्छा है। विश्व का विलय हो चुका है और जीव 'आभालोक' में जन्म लेकर आनन्द का आहार करते हुए, आत्म प्रकाश, वायु में उड़ते हुए गौरवपूर्वक रह रहे हैं । विश्व के पुनः विकसित होने पर ये ही जीव आभा-लोक से च्युत होकर मानव
परिसंवाद-२
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