Book Title: Bharatiya Chintan ki Parampara me Navin Sambhavanae Part 1
Author(s): Radheshyamdhar Dvivedi
Publisher: Sampurnanand Sanskrut Vishvavidyalaya Varanasi
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भारतीय चिन्तन की परम्परा में नवीन सम्भावनाएं अन्त में उन बातों की चर्चा भी आवश्यक है जिन्हें स्वीकार करने में कुछ लोगों को कठिनाई होगी। प्रथमतः, इन तथ्यात्मक सूचनाओं का स्रोत क्या है ? वैदिक तथा अन्य प्रकार के आप्तवचन से यह किस अर्थ में भिन्न है ? यह प्रश्न बहुत महत्त्वपूर्ण न होता, यदि सामान्यतः बुद्ध आप्त वचन एवं शब्द-प्रमाण के विरोधी न होते । क्या यह मान लिया जाय कि यह ज्ञान भी उसी प्रकार की क्षमताओं का अंग है जिन्हें साधक अर्हत्व के साथ प्राप्त करता है ? निश्चय ही बुद्ध ऐसी कई बातें करते थे जिनकी जाँच साधारण मनुष्य के वश के बाहर की बात होगी । ऐसा करना बुद्ध अपना अधिकार मानते थे क्योंकि उनके अनुसार यह उनका व्यक्तिगत अनुभव था। अन्य श्रमणों को वे ऐसी बात बोलने की अनुमति नहीं देते थे जो उनके द्वारा अनुभूत न हों । दूसरे, बुद्ध यहाँ स्पष्ट ही अध्यात्मवाद का पक्ष ले रहे हैं। वह मूल स्थिति जिससे च्युत (अथवा पतित) होकर ही जीव विश्व-प्रक्रिया में आबद्ध होता है अवश्य ही अशरीरी कल्पित की गयी होगी। अन्यथा मात्र आनन्द के आहार पर रहना संभव न होता । तोसरे, इस चित्र में प्राकृतिक जगत् तथा मानव के बीच कोई वास्तविक समागम दिखायी नहीं दे रहा है। क्या उस युग से बुद्ध अपरिचित थे ? जब विभिन्न प्राकृतिक शक्तियों को देवता मानकर उन्हें प्रसन्न करने तथा उनका सहयोग प्राप्त करने का प्रयास विशाल पैमाने पर होता था।
१. उदाहरणार्थ, दीघनिकाय (वही जिल्द) तेरहवाँ सुत्त, विशेषकर पृष्ठ २०१ ।
परिसंवाद-२
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