Book Title: Bharatiya Chintan ki Parampara me Navin Sambhavanae Part 1
Author(s): Radheshyamdhar Dvivedi
Publisher: Sampurnanand Sanskrut Vishvavidyalaya Varanasi
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भारतीय चिन्तन की परम्परा में नवीन सम्भावनाएं में ही लगे रहे। इस प्रकार बौद्ध दर्शन बहुजन की मंगल भावना से अनुप्राणित है। इसके सामने बहुजन की समस्या है। संसार में दुःख व्याप्त है, सब कुछ जल रहा है, सभी पीड़ित हैं। अतः इस व्यापक दुःख को कैसे दूर किया जाय, इसकी चिन्ता है। इसीलिए भगवान् ने चार आर्य सत्यों के द्वारा इस व्यापक रोग को दूर करने का निदान बतलाया है।
बौद्ध परम्परा के अनुसार व्यक्ति जड़ चेतन का समुच्चय है। इसे पञ्चस्कन्ध का सम्पुजन भी कहा जा सकता है। इसी को संक्षेप में नाम रूप से अभिहित किया गया है। जो कुछ स्थूल है, वह रूप है तथा जो चित्त चैतसिक सूक्ष्म धर्म हैं उसे नाम कहा गया है। इस प्रकार 'मनुष्य' या पुद्गल कोई एक शुद्ध सत्ता नहीं है, वरन् वह मानसिक और भौतिक अनेक अवस्थाओं का समुदायमात्र है। सभी भौतिक अवस्थाओं का संग्रहात्मक नाम रूप है। और सभी मानसिक अवस्थाओं का संग्रहात्मक नाम 'नाम' है। रूप स्कन्ध्र में भी चार महाभूत और उनसे उत्पन्न उपादा रूपों का समूह है तथा शेष चार स्कन्ध वेदना, संज्ञा, संस्कार और विज्ञान 'नाम' है। इसे ही चित्त चैतसिक के द्वारा व्यक्त किया गया है। ये सभी उत्पत्ति
और विनाश के निरन्तर क्रम में घूमा करते हैं। जब हम व्यक्तित्व या 'सत्त्व' जैसी बात करते हैं तो इनके समुच्चय मात्र का निर्देश करते हैं। वस्तुतः 'आत्मा' नामक पदार्थ की अलग सत्ता नहीं है। जिस प्रकार भिन्न-भिन्न अङ्गों के आधार पर 'रथ' की संज्ञा होती है, उसी प्रकार पञ्चस्कन्धों के आधार पर व्यक्ति के व्यक्तित्व की उपलब्धि होती है । अर्थात् व्यक्ति केवल नाम के लिए है, व्यवहार के लिए है, न की उस प्रकार की कोई शाश्वत सत्ता का बोधक है, इसीलिए यह प्रज्ञप्ति सत् है, पर द्रव्य सत् नहीं हैं। आचार्य बुद्धघोष ने कहा है कि दुःख ही यहाँ है किन्तु 'दुःखित' कोई नहीं है, क्रिया है किन्तु 'कारक' नहीं, निर्वाण है किन्तु निर्वृत नहीं, मार्ग है किन्तु गमन करने वाला नहीं। "दुक्खमेव हि न च कोपि दुक्खितो, कारको न क्रिया च विज्जति। अत्थि निब्बुति न निब्बुतो पुमा मग्गं अत्थि गमको न विज्जति'।" तात्पर्य यह है कि प्रतीत्यसमुत्पन्न सभी बाह्य और अन्दर के धर्मों का छान-वीन करने पर उनमें कोई ऐसा स्थित तत्त्व नहीं मिलता, जिसको अपना या 'आत्मा' करके ग्रहण किया जा सके, क्योंकि वे सभी अनित्य हैं, क्षणिक है, और दुःख रूप हैं। जो अनित्य है, क्षणिक है, दुःख रूप हैं वे अपना नहीं हो सकते । अतः इन्हें अपना कहना मिथ्यादृष्टि है, अज्ञानता है। त्रिपिटक के अनेक सुत्तों में इन स्कन्धों को प्रतीत्यसमुत्पन्न,
१. विशुद्धिमग्ग।
परिसंवाद-२
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