Book Title: Bharatiya Chintan ki Parampara me Navin Sambhavanae Part 1
Author(s): Radheshyamdhar Dvivedi
Publisher: Sampurnanand Sanskrut Vishvavidyalaya Varanasi
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बुद्ध का स्वनियन्त्रित अध्यात्मवाद : समष्टि व्यष्टि के सन्दर्भ में भी गया तो उससे वह व्यक्ति भगवान् ही बना रहा। व्यक्ति सत्य ज्ञान प्राप्त करके पुनः समाज में क्यों आता है इसलिए कि समाज वाले उसे पागल न कहें, वरना उसका तत्त्वज्ञान पागलपन का ज्ञान माना जायेगा। तर्क जिस राग के आधार को नष्ट करके अपने को ज्ञान का जामा पहनाता है अगर उसे आस्था का संबल न दिया जाय तो वह अपना गला स्वयं घोट लेगा। और ज्ञानी अज्ञानी के बीच का भेद समाप्त कर देगा । ज्ञानी व्यवस्थाओं को जानकर तोड़ता है, अज्ञानी व्यवस्थाओं को आस्थावश नहीं तोड़ पाता। पर ज्ञानी व्यवस्था तोड़कर अपने को श्रेष्ठ महसूस करता है । और अज्ञानी व्यवस्था तोड़कर अपने को होन महसूस करता है। इन ज्ञानी अज्ञानियों में कौन श्रेष्ठ है, इस विचार से भारतीय मनीषा ज्ञानी को तब तक श्रेष्ठ नहीं मानती, जब तक वह सपूर्ण मानव की दृष्टि से उत्तम कार्य नहीं करता। साथ ही व्यक्तिगत जीवन उसका पवित्र नहीं होता। कभी कभी व्यक्तिगत जीवन श्रेष्ठ होने पर भी सामाजिक जीवन आदर्शमय न पाकर वह व्यथित हो जाता है, उस व्यथा के कारण वह समाज में पदार्पण करता है और सामाजिक गुत्थियों को सुलझाना चाहता है । वह जिन विग्रहों को अपने ज्ञान और आस्था के बल पर समाप्त किया था उन विग्रहों को समाप्त करने के लिए सामान्य जन को बतलाता है पर वे यदि उसके अनुकूल आचरण नहीं करते तो उससे उसको खीझ होती है। फलतः सामाजिक कृत्य छोड़कर आत्माभिमुखी होता है, आत्माराम को प्रसन्न करता है और उसके इस आचरण का समाज पर गहरा प्रभाव पड़ता है। इसीलिए लोग जंगलों में ज्ञान लेने जाते थे, क्योंकि ज्ञानी का लोगों ने अपमान किया था, उसका बदला अब लोग उसमें आस्था जताकर देना चाहते हैं। अब ज्ञानी लोगों के सच्चे भाव से ज्ञान देता है क्योंकि लोगों ने उसके ज्ञान की कद्र की है। इसीलिए वह संसार भव को पार करने का रास्ता बताता है।
__ भारत में साधु महात्माओं का बड़ा महत्त्व रहा है । भगवान् बुद्ध इसी कड़ी में सुमीरनी हैं। वह उपायकुशल थे, वह किसको कैसा बताना चाहिए ? यह जानते थे, वह तत्त्वज्ञ थे, लोकहितैषी थे, अतएव लोकानुकम्पा से संसार की ओर प्रवृत्त हुए। यह लोकानुकम्पा या लोकहितैषिता राजनीतिज्ञों या सेमीनारिस्टों का राजनीतिक या प्रवचन मंच नहीं था। वह दूसरे को दुःखी देखकर अपनी आँख नहीं मुंद लेते थे और अपने को कप्ट में पाकर सिद्धान्तवादी वक्तव्य नहीं देते थे या सामान्य जनों में अपनी प्रसिद्धि के लिए शास्त्रवचन नहीं कहते थे। वह शास्त्र के विरोधी थे, वह महाकारुणिक थे, उन्होंने सिंहनी शिश की रक्षा के लिए आत्मसमर्पण किया था। वह सामान्य व्यक्ति तो क्या हिंसक प्राणि के लिए भी सर्वस्व समर्पित कर सकते थे। ऐसे बुद्ध से यह समाज कुछ
परिसंवाद-२
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