Book Title: Bharatiya Chintan ki Parampara me Navin Sambhavanae Part 1
Author(s): Radheshyamdhar Dvivedi
Publisher: Sampurnanand Sanskrut Vishvavidyalaya Varanasi
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बौद्ध दृष्टि से व्यक्ति का विकास
डॉ० हरिशंकर शुक्ल व्यक्ति और समष्टि अत्यन्त व्यापक विषय है। इसका अध्ययन तो सभी सामाजिक विज्ञानों में किया जाता है, लेकिन हमारे सामने कठिनाई यह आती है कि समाज के बारे में सभी सामाजिक विज्ञानों का दृष्टिकोण एक दूसरे से भिन्न हैं। राजनीति शास्त्र में समाज का तात्पर्य व्यक्तियों के समूह से समझा जाता है । अर्थशास्त्र समाज को आर्थिक क्रियायें करने वाले व्यक्तियों के समूह के रूप में देखता है । मानवशास्त्र आदिम समुदायों को ही समाज कहता है तथा समाजशास्त्र सम्पूर्ण सामाजिक जीवन का अध्ययन करता है। इस प्रकार हम देखते हैं कि भिन्न-भिन्न शास्त्र भिन्न-भिन्न रूपों में व्यष्टि तथा समष्टि का अध्ययन करते हैं। इनके अध्ययन का अपना अलग-अलग क्षेत्र है। कोई भी शास्त्रसमाज के सभी पक्षों का अध्ययन नहीं करता है। साथ ही व्यक्ति का सर्वांगीण विकास किस प्रकार सम्भव है, इसका विवेचन किसी एक शास्त्र में उपलब्ध नहीं है; जबकि बौद्धशास्त्र व्यष्टि तथा समष्टि के सर्वाङ्गीण रूपों का अध्ययन करता है। वह सामाजिक, धार्मिक, आर्थिक, दार्शनिक आदि रूपों में इसका अध्ययन करता है। अतः इस पर कई दृष्टियों से प्रकाश डाला जा सकता है। समाज, नीति, दर्शन आदि इसके कई दृष्टिकोण हैं। हम धरती के मानव प्राणी हैं एवं हमारी मूलभूत समस्यायें भी हैं। यह धरती का मनुष्य यहाँ सुखद परिवेश बना सके, यह हम सबको इष्ट है। फलतः विशुद्ध व्यावहारिक दृष्टिकोण से बौद्ध चिन्तन के अनुसार व्यक्ति एवं समष्टि का कैसे पूर्ण विकास हो सकता है, इस तथ्य को इस निबन्ध में प्रस्तुत करना है ।
पालि साहित्य में व्यष्टि अर्थात् व्यक्ति के लिए पुग्गल, मनुस्स आदि शब्दों का प्रयोग हुआ है। यहाँ इन शब्दों का प्रयोग किसी व्यक्ति विशेष के लिए न होकर व्यापक रूप में हुआ है। हालाकि बौद्ध दर्शन में व्यक्ति की कल्पना पञ्च स्कन्धों के रूप में है। वहीं व्यक्तिवाद का खण्डन किया गया है। अतः इस आधार पर हम कह सकते हैं कि इस व्यावहारिक जगत में जिसे हम व्यक्ति की संज्ञा देते हैं, वही पञ्चस्कन्ध है, जो अर्हत्व प्राप्ति की ओर अग्रसर होता है। उपर्यक्त आधार पर बौद्ध चिन्तन की दृष्टि से पञ्चस्कन्धों के समुदाय को ही समाज कहा जा सकता है। सामान्यतः त्रिपिटक में समाज या समष्टि शब्द का प्रयोग नहीं मिलता है, लेकिन भगवान् बुद्ध
परिसंवाद २
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