Book Title: Bharatiya Chintan ki Parampara me Navin Sambhavanae Part 1
Author(s): Radheshyamdhar Dvivedi
Publisher: Sampurnanand Sanskrut Vishvavidyalaya Varanasi
View full book text
________________
८२
भारतीय चिन्तन की परम्परा में नवीन सम्भावनाएँ ज्ञान प्राप्त करना कठिन है।" "बुद्धप्पोक्त धर्म को अनेक प्राचीन ग्रन्थों में सर्वलोकविप्रत्यनीको अयं धर्मो" कहा गया है । (अष्टसाहस्रिका पृष्ठ १५२, सद्धर्मपुण्डरीकसूत्र पृ० १४५, ललितविस्तर पृ० २८९) ।
बौद्धमत की यह सम्भवतः सबसे बड़ी विशेषता है कि इसके अनुसार व्यक्ति एवं समाज को निःस्वभावता को ध्यान में रखकर ही उनकी सत्ता और महत्ता का समर्थन हो सकता है। ऊपर से देखने पर यह कथन विरोधपूर्ण अथवा 'पैराडाक्सिकल' प्रतीत होता है। परन्तु जैसा कि आप सबको विदित है, परमार्थ की समस्त चर्चा 'पैराडाक्सिकल' अथवा विरोधमय होती है, परमार्थ को भुलाकर सिर्फ व्यवहार की दृष्टि से व्यष्टि एवं समष्टि पर परिसंवाद करना भौतिकवादी अथवा लोकायतिक व्यापार करने के समान होगा। दूसरी ओर, व्यावहारिक तथ्यों से आँख-मुंख मोड़कर केवल अपने ही लिये सूखे और नीरस 'निव्वान' की तलाश करना अत्यन्त क्षुद्र प्रयास करने के समान होगा। तीसरी और व्यक्ति की स्वतन्त्र सत्ता स्वीकार करके, व्यक्तियों से बने समाज की सत्ता मान करके, इन दोनों के बीच भेद-भाव व संघर्षसन्तुलन की समस्याएँ निर्मित करके फिर उनको समझने-सुलझाने में लग जाना स्वयं टेढ़ा-मेढ़ा और गहरा कुआँ खोद करके उसमें गिर जाने के समान होगा।
विमलकीतिनिर्देशसूत्र के अनुसार व्यक्ति और समाज अभिन्न है, एक है, समान है। दोनों ही परमार्थतः असत् हैं । इन दोनों की निःस्वभावता के कारण इन दोनों में एकरूपता है। आत्मा के अभाव में किसी व्यक्ति या पुद्गल की कल्पना नहीं हो सकती है। आत्मा अथवा आत्मभाव के अभाव का दूसरा नाम निःस्वभाव अथवा शून्य है। निःस्वभाव अथवा शून्य कोई व्यक्ति अथवा पुद्गल नहीं हो सकता है। अतएव व्यक्ति अनुपलब्ध है, असत् है। यही तर्क समाज की सत्ता पर भी लागू होता है और समाज का स्वभाव भी निःस्वभाव होने के कारण उसको असत् सिद्ध करता है। इस प्रकार व्यष्टि एवं सम दोनों की एकता का अधिगम होता है। यह एकता अथवा सत्ता परमार्थ की दृष्टि से अधिगत होती है। इसी दृष्टि को ध्यान में रखकर व्यवहार में भी व्यष्टि एवं समष्टि की अभिन्नता अधिगत हो सकती है। यह विमलकीति का दावा है जो बौद्धमत का केन्द्रीय विचार है।
व्यवहार सत्य के अनुसार प्रत्येक प्राणी को भय और दुःख अप्रिय है। प्रत्येक प्राणी को जीवन प्रिय है, और मृत्यु अप्रिय है। प्रत्येक प्राणी सुख की कामना करता है। यह सभी विशेषताएँ सभी प्राणियों में सर्वत्र विद्यमान हैं। इनके कारण सभी प्राणियों की एकता और समानता सिद्ध होती है। ईश्वरवादी परम्पराओं में सभी परिसंवाद-२
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org