Book Title: Bharatiya Chintan ki Parampara me Navin Sambhavanae Part 1
Author(s): Radheshyamdhar Dvivedi
Publisher: Sampurnanand Sanskrut Vishvavidyalaya Varanasi
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बौद्धदर्शन की दृष्टि से व्यक्ति, समाज और उनका सम्बन्ध
बौद्धदर्शन जिस सत्यान्वेषी तथा सामाजिक क्रान्तिकारी के उपदेशों और आचरणों पर खड़ा होकर विकसित हुआ, संसार के विभिन्न देशों में फैला और आज भी लोगों को अनुप्राणित कर रहा है वह 'बुद्ध' नाम के व्यक्ति थे जो वैराग्य और त्याग की प्रतिमूर्ति बनकर बोधि प्राप्त कर लेने पर भी सभी लोगों के दुःख, शोक एवं परिदेव के लिए जीवन धारण किये रहने का बार-बार आग्रह करते हैं, बोधिसत्त्व के रूप में सभी के दुःख विमोचन हेतु कलि के सभी कलुषों को अपने ऊपर आने का आवाहन करते हैं, रात-दिन जीवनपर्यन्त हर एक क्षण में लोगों को दुःख एवं पीड़ा से छुटकारा दिलाने हेतु प्रयास करने का व्रत लेकर तदनुकूल आचरण करते हैं। अतः बौद्ध दार्शनिकों को जिस तरह का समाज एवं उसकी व्यवस्था विरासत में मिली थो, उनमें अपने चरम मूल्यों के परिप्रेक्ष्य में अभ्युदय और निःश्रेयस् की व्यवस्था उन्होंने स्थापित की।
बौद्धदर्शन वैराग्यमूलक है, वैराग्य में जो प्रतिषेध अथवा निषेध का संस्पर्श है वह माध्यमिक बौद्ध प्रणाली (प्रासङ्गिक माध्यमिकों का विशेषकर) की नाभि है। बिना निषेध के नवीन निर्माण असम्भव है। एक ऊँची स्थिति या सर्वोच्च स्थिति को प्राप्त करने के लिए सीमाओं को या छोटे-छोटे दायरों को (चाहे ये दायरे जिस भी तरह के हों, अहं सबसे छोटा दायरा या उसका और विस्तृत रूप में कोई बड़ा दायरा) टूटना होगा, तब वास्तविक और कल्याणकारी स्थिति प्राप्त हो सकेगी। स्व, अहं एवं उनसे सम्बद्ध 'मेरा' आदि अपने विविध रूपों में वस्तुतः मिथ्यादष्टियाँ हैं। निषेध या प्रतिषेध इन्हीं मिथ्यादृष्टियों का होना है। ऐसी मान्यता के कारण, बौद्धदर्शन, व्यष्टि (व्यक्ति) एवं समष्टि (समाज) के लिए जो कि अन्योन्याश्रित और परस्पर सापेक्ष हैं-वैराग्य की भावना को त्याग कर अभ्युदय की प्राप्ति का उपदेश नहीं देगा।
अभ्युदय और निःश्रेयस को नागार्जुन दो पुरुषार्थ मानते हैं। इसके साथ ही इस प्रसङ्ग में रत्नावली में आचार्य ने जो विवेचना की है उससे समाज-व्यवस्था की एक रूप-रेखा का स्पष्ट संकेत हमें मिलता है। जो अभ्युदय को अपनाना चाहते हैं उनके लिए दान एवं शीलादि की विस्तार से विवेचना आचार्य नागार्जुन ने की है
१. धर्ममेकान्तकल्याणं राजन् धर्मोदयाय ते ।
वक्ष्यामि धर्मः सिद्धि हि याति सद्धर्मभाजने ॥ प्राग्धर्माभ्युदयो यत्र पश्चान्नैःश्रेयसोदयः । सम्प्राप्याभ्युदयं यस्मादेति नैःश्रेयसं क्रमात् ॥ रत्नावली १२-३
परिसंवाद-२
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