Book Title: Bharatiya Chintan ki Parampara me Navin Sambhavanae Part 1
Author(s): Radheshyamdhar Dvivedi
Publisher: Sampurnanand Sanskrut Vishvavidyalaya Varanasi
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भारतीय चिन्तन की परम्परा में नवीन सम्भावनाएं
हुआ देखता है। यहाँ स्मरणीय है कि चूंकि उपर्युक्त कारण-विश्लेषण सारे मानवअस्तित्व के सम्बन्ध में है, यह मानना न्यायसंगत होगा कि वह मनुष्य के व्यष्टि-रूप तथा समष्टि-रूप दोनों पर समान रूप से प्रयुक्त है और फलतः प्रज्ञा की स्थिति भी अवश्य दोनों ही क्षेत्र में समानतः प्रयुक्त होती है। द्रष्टव्य है कि ब्रह्मविहार के चार गणों में प्रकटतः प्रथम दो समष्टि-रूप के लिए और अन्य दो व्यष्टि-रूप के लिए प्रयुज्य हैं। ५. निष्कर्ष
अब संक्षेप में कुछ अन्य विचारणीय बातों को इस तरह रखा जा सकता है
१-बौद्ध-धर्म-दर्शन के विषय में यह मत सही नहीं जान पड़ता कि उसका लक्ष्य केवल व्यक्ति का स्वरूप-ज्ञान और निर्वाण है। मनुष्य के समष्टि-रूप को भी एक विशेष तरह से समझने में उससे मदद मिल सकती है। . २-किन्तु यह सही है कि मनुष्य के समष्टि रूप की उक्त आधार से समझ कोई सहज कार्य नहीं है । विशेषतः इसलिए क्योंकि इस समष्टिरूपक दो अनिवार्य अंगों-काम और अर्थ के रूप में मानव-पुरुषार्थों को बुद्ध-देशना के अन्तर्गत पुरुषार्थ या मूल्य समझने में कुछ गम्भीर बाधाएँ हैं, क्योंकि ये उस कारण-शृंखला में अन्तर्भाव्य जान पड़ते हैं जिन्हें बुद्ध मानव-दुःख का कारण समझते हैं। अतः यह समस्या है कि शायद इन दो तत्त्वों से व्यतिरिक्त समष्टि रूप में मानव-उत्कर्ष का रूप ठीक ठीक व्याख्येय नहीं रह पाता।
३-यह विचारणीय तत्त्व है कि क्या 'संघ' की धारणा एक नये प्रकार की समष्टि या समाज की धारणा है। अगर सचमुच ऐसा हो, तो यह स्वीकार करना होगा कि मानव-उत्पादकता का एक अनिवार्य पक्ष इससे अछूता रह जाता अर्थात् जिसमें श्रम के आधार से धन का उत्पादन होता है । इस पक्ष की पूर्ति के लिए 'संघ' उपासक गृहस्थों के (संघ-बाह्य) समाज पर आश्रित रहता है। इसीलिए बौद्ध-धर्म के कुछ व्याख्याकार यह मान लेते हैं कि बौद्ध-धर्म में उपासक गृहस्थ का स्थान एक 'साधन' के रूप में है-श्रमणों की भिक्षा की पूर्ति के साधन । किन्तु बुद्ध की सार्वभौम करुणा और मैत्री के प्रकाश में यह मत ठीक नहीं जान पड़ता।
परिसंवाद-२
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