Book Title: Bharatiya Chintan ki Parampara me Navin Sambhavanae Part 1
Author(s): Radheshyamdhar Dvivedi
Publisher: Sampurnanand Sanskrut Vishvavidyalaya Varanasi
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भारतीय चिन्तन की परम्परा में नवीन सम्भावनाएँ
को व्यक्तियों की. प्रज्ञप्ति माना जा सकता है। व्यक्ति स्वयं रूप, वेदना, संज्ञा, संस्कार और विज्ञान की राशि है, समष्टि है। इसलिए समाज समष्टि की समष्टि है। किन्तु इनकी पारमार्थिक सत्ता नहीं है। व्यक्ति और समाज दोनों ही संवृति सत्य है।
आधुनिक समाजविज्ञान की एक दृष्टि के अनुसार व्यक्ति और समाज के हित में आत्यंतिक संघर्ष नहीं है। ऐडम स्मिथ के अनुसार व्यक्ति अपने हित को सिद्ध करता हुआ प्रायः समाज के हित को सिद्ध करता है। व्यक्ति अपना हित-अनहित पहचानता है। इसलिए राज्य को उसके हित-साधन में कम से कम हस्तक्षेप करना अच्छा है। वह निर्बन्ध रूप से अपने हित साधन करता हुआ पूरे समाज का भी हित साधन कर लेगा। राज्य का कर्तव्य न्याय और प्रशासन की व्यवस्था और ऐसे सार्वजनिक निर्माण के काम करना है जैसे सड़क, नहर इत्यादि, जो व्यक्ति अपने तई नहीं कर सकता। इस अहस्तक्षेपवादी दृष्टि में, राज्य का हस्तक्षेप एक हद के बाद अनावश्यक, बल्कि साफ तौर पर नुकसानदेह है। इसके विपरीत मार्क्सवादी व्याख्या में समाज को परस्पर-विरुद्ध वर्गों में देखने की चाल है। मार्क्स और एंगेल्स के अनुसार आदिम साम्यवाद की अवस्था को छोड़कर, मनुष्य जाति का इतिहास वर्ग-संघर्ष का इतिहास है। यह वर्ग संघर्ष ही इतिहास को गति प्रदान करता है। . समाजवादी आलोचना के प्रभाव से समाज व्यवस्था में परिवर्तन पर आजकल बल दिया जाता है। किन्तु यह भी अनुभव हो रहा है कि सत्ता-व्यवस्था, विशेषकर राजनीतिक व्यवस्था में कैसा भी परिवर्तन क्यों न हो, व्यक्ति स्वतन्त्रता और आनन्द का अनुभव नहीं कर पाता। मात्र सत्ता-व्यवस्था में परिवर्तन से वे बनियादी परिवर्तन नहीं हो पाते, जिनकी भूख आजकल है।
जो भी हो, आधुनिक चिन्तन में व्यक्तिवादी और समाजवादो अन्तों पर बल दिया जाता है । चाहे इनमें समन्वय देखा जाए या संघर्ष या दोनों । जबकि परम्परागत बौद्ध दृष्टि में स्व-पर समता और परिवर्तन रहा है। जैसे कोई खुद दुःख नहीं चाहता, वैसे ही दूसरा भी दुःख नहीं चाहता; जैसे खुद हर कोई सुख चाहता है, वैसे ही दूसरा भी । इसलिए दूसरे को दुःख न दे, सुख चाहे। फिर एक भूमि के बाद 'स्व' का 'पर' में और 'पर' का 'स्व' में परिवर्तन हो जाता है, अद्वय हो जाता है। स्व-पर युगनद्ध हो जाता है। इसलिए इनमें समन्वय या संघर्ष का प्रश्न नहीं।
परिसंवाद-२
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