Book Title: Bharatiya Chintan ki Parampara me Navin Sambhavanae Part 1
Author(s): Radheshyamdhar Dvivedi
Publisher: Sampurnanand Sanskrut Vishvavidyalaya Varanasi
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भारतीय चिन्तन की परम्परा में नवीन सम्भावनाएँ
बौद्ध विचारकों को व्यावहारिक दृष्टि से भी व्यक्तित्व एवम् उसकी इदंता का निषेध भी अभीष्ट होता, परन्तु ऐसा करने पर अनेकों प्रश्न उनके सामने उठ खड़े होते । अतः यह स्वीकृति एक तरह उनके लिए बाध्यता ही है ।
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समाज का स्वरूप
व्यक्ति की तरह समाज का अस्तित्व भी बौद्ध दर्शन में सांघातिक माना गया है । समाज व्यक्तियों की संघटना है जिसका कोई पारमार्थिक अस्तित्व या मूल्य नहीं होता है । जिस तरह व्यक्ति के व्यक्तित्व की इदंता व्यावहारिक आवश्यकता है । उसी तरह समाज जो कि व्यक्तियों का समुदाय है, व्यावहारिक आवश्यकता का ही परिणाम है। न तो समाज का व्यक्तियों से स्वतन्त्र अपना कोई अस्तित्व है और न उसकी अपनी कोई विशेषता है जो उसके निर्मायक व्यक्तियों की विशेषताओं से भिन्न हो । समाज अन्य समस्त सांघातिक तथ्यों की तरह सतत परिवर्तनशील है और उसके सातत्य की अनुभूति वैसी ही भ्रान्तिमूलक है जैसी कि व्यक्ति के सातत्य की अनुभूति ।
समाज के स्वरूप के बारे में बौद्ध दृष्टिकोण उसके द्वारा प्रस्तुत श्रमण परम्परा के अनुरूप है, जिसके अन्तर्गत समस्त वर्गभेद एवम् वर्णभेद का निषेध किया जाता है । समाज में विद्यमान असमानता एवम् भेद-भाव अस्वाभाविक है, जिसका उन्मूलन एक श्रेष्ठ सामाजिक व्यवस्था का आदर्श है । पारमार्थिक दृष्टि से तो बौद्ध विचारक समाज के विदीर्ण होने की ही बात करना चाहेंगे । परन्तु व्यावहारिक दृष्टि से सामाजिक व्यवस्था अपरिहार्य होने के कारण वे इसे वर्ण अथवा वर्ग भेद से रहित तथा समतामूलक स्वरूप देना चाहेंगे ।
व्यक्ति तथा समाज के सम्बन्ध
जहाँ तक व्यक्ति और समाज के सम्बन्ध का प्रश्न है, बौद्ध दृष्टि में व्यक्ति साध्य है और समाज साधन । समाज की संरचना व्यक्ति के ही लिये होती है अतः व्यक्ति का हित समाज के हित से श्रेष्ठतर माना जाना चाहिए । वस्तुतः समाज की कोई पृथक् सत्ता ही नहीं है, अतः सामाजिक हित नामक कोई तथ्य भी नहीं है । परन्तु जिस तरह व्यक्तियों के समूह की समाज के रूप में कल्पना की जाती है उसी तरह सामाजिक हित की भी कल्पना की जा सकती है और इससे केवल यही तात्पर्य निकलता है कि अधिकतम व्यक्तियों का अधिकतम हित । परन्तु यह एक विचारणीय प्रश्न है कि क्या बौद्ध दृष्टि से सामाजिक हित के लिए व्यक्ति के हित का त्याग मान्य हो सकता है ?
परिसंवाद - २
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