Book Title: Bharatiya Chintan ki Parampara me Navin Sambhavanae Part 1
Author(s): Radheshyamdhar Dvivedi
Publisher: Sampurnanand Sanskrut Vishvavidyalaya Varanasi
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भारतीय चिन्तन की परम्परा में नवीन सम्भावनाएं । ये धर्म लोकस्थिति के आधार हैं। अर्थात् किसी व्यक्ति को देखकर किसी बुरे काम या असभ्य कार्य करने में लज्जा आना, यो स्वयं को किसी बुरे कर्मों को करने में शर्म या हिचक होना । ये दो चीजें जब तक मनुष्य (व्यक्ति और समाज) में रहेंगी, तब तक उनकी लोकयात्रा का आधार सुस्थिर नहीं होगा। अन्यथा जब मनुष्य के जीवन से सम्बन्धित सभी व्यवस्थाएँ एवं सम्बन्ध विच्छिन्न होने की स्थिति में पहुँच जाते हैं तो मनुष्य किसी के प्रति उत्तरदायी नहीं रह जाता है ।
__समाज में या उसके सदस्यों में उपर्युक्त दो धर्मों के तत्त्व जितनी मात्रा में रहेंगे, सम्भवतः समाज या व्यक्ति में उतनी ही समाजिकता और मानवीयता परिलक्षित होगी। इन तत्त्वों के व्यापक सन्दर्भ में यदि समाजशास्त्रीय समीक्षा की जाए तो सम्भवतः कुछ तथ्य अवश्य सामने आ सकते हैं।
आधुनिक विद्वान् विनय में परिभाषित भिक्षु संघ और त्रि-शरण के अन्तर्गत के संघ को एक मानकर अनेक असंगतियाँ खड़ी कर देते हैं। अतः संक्षेप में इन दोनों का भेद स्पष्ट कर देना आवश्यक है। भिक्षुसंघ तथा त्रिशरणान्तर्गत भिक्षुसंघ में भेद
श्रावक निकाय के अनुसार संघकारक शैक्ष तथा अशैक्ष लोगों की सन्तति का 'अनास्रव-ज्ञान' त्रिशरणान्तर्गत संघ माना जाता है। जैसा कि अभिधर्मकोश में दिया हुआ है
बुद्धसंघकरान् धर्मान् अशैक्षानुभयांश्च सः।
निर्वाणं चेतिशरणं यो याति शरणत्रयम् ॥ (अभिधर्मकोश ४।३२) यहाँ त्रिशरण से तात्पर्य बुद्धकारक धर्म अशैक्ष्य मार्ग, संघकारक धर्म शैक्ष्यअशैक्ष्य मार्ग और धर्मकारक निर्वाण अर्थात् प्रतिसंख्यानिरोध की शरण में जाना ही है।
यहाँ बुद्धकारक अशैक्ष्य मार्ग से अभिप्राय धर्मकाय से है ।
बुद्ध के धर्मकाय के दो रूप होते हैं-ज्ञानधर्मकाय और स्वभावधर्मकाय । ज्ञानधर्मकाय बुद्ध की सन्तति में निहित उस ज्ञान को कहते हैं, जो समस्त धर्मों के स्वरूप को यथावत् जानता है। स्वभाव धर्मकाय उस धर्मता या विसंयोग फल को कहते हैं, जो समस्त अज्ञान और आवरणों से रहित है। यह फलज्ञान धर्मकाय का (साक्षात्) अधिगत विषय भी होता है। इसलिये इस ज्ञान को क्षयज्ञान भी कहा जाता है। इस सपरिवार क्षयज्ञान को ही यहाँ बुद्धकारक धर्म कहा जाता है।
परिसंवाद-२
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