Book Title: Bharatiya Chintan ki Parampara me Navin Sambhavanae Part 1
Author(s): Radheshyamdhar Dvivedi
Publisher: Sampurnanand Sanskrut Vishvavidyalaya Varanasi
View full book text
________________
बौद्ध विनय की दृष्टि में
२२
भिक्षु देहधारी होने के कारण समाज से कटा हुआ नहीं रह सकता। इस कारण तथागत ने भिक्षु-संघ के अन्तर्भूत सामाजिक व्यवस्था भिक्षु-संघ एवं भिक्षु तथा साधारण समाज के बोच के पारस्परिक सम्बन्धों की व्यवस्थाओं को संतुलित और अहिंसामय रखने की सूक्ष्म और विस्तृत विधियों का अनुशासन किया है।
सम्पूर्ण विनय पिटक का विषय अप्राप्त संवर को प्राप्त करने का उपाय, प्राप्त संवर के पालन एवं संवर्धन का उपाय तथा प्राप्त संवर की हानि होने पर प्रायश्चित द्वारा सुधार का उपाय, इन वर्गों में वर्गीकृत किया जा सकता है। विश्लेषण से ये सभी समाज को सुचालित और उसके सम्बन्धों को मधुर बनाये रखने की ही दिशा में आतित है।
यहाँ पर मुख्य रूप से प्रातिमोक्ष शील के तीन मूल तत्त्वों का निर्देश किया जाता है-अप्राप्त की प्राप्ति, प्राप्त की वृद्धि तथा प्राप्त की हानि की स्थिति में उसके प्रायश्चित का उपाय । जैसे एक व्यक्ति पञ्चशील ग्रहण करके उपासक बनता है या उपसम्पदा ग्रहण करके भिक्षुभाव को प्राप्त करता है, तो यह विनयविहित व्यवस्थाओं के आधार पर ही होता है । अन्यथा चाहे जो भी विधि अपनाए या भिक्षुओं के समस्त नियमों का जीवन भर पालन करता रहे तो भी वह भिक्षु नहीं होता है।
__प्राप्त संवरों के संवर्द्धन के भी अनेक तत्त्व होते हैं-स्वयं विपरीत विषयों की और अपनी इन्द्रियों की प्रवृत्ति का संवरण करते हुए शील का पालन करना अथवा गुरु, मित्र, शास्त्र, शुद्ध आजीविका, अनुकूल वातावरण, उपोसथादि संघ-कर्म इत्यादि की अपेक्षा से उसका संवर्द्धन किया जाता है ।
संघ-भेद, अर्थात् एक संघ में फूट डालकर उसे दो निकायों में विभक्त करना। जैसे कोई विनय विरुद्ध दोष लग जाने पर सम्बन्धित व्यक्ति को संघ के सामने प्रायश्चित कार्य अवश्य ही करना पड़ता है। अन्यथा उस व्यक्ति को संघ में सम्मिलित नहीं किया जा सकता। विनय सम्बन्धी और भी बहुत से ऐसे दोष या अपराध हैं जिनसे विरत रहने का उद्देश्य संघ और शीलवान लोगों को केवल सामाजिक अपवादों से बचाना है, जैसे सुगन्धित द्रव्यों का लेप करना, एक अंगुली से अधिक लम्बा बाल रखना आदि ।
इन विधि नियमों को देखते हुए लगता है कि एक प्राप्तिमोक्ष शील प्राप्त व्यक्ति का समाज में किन-किन सामाजिक पवित्र धर्मों से युक्त होना अभीष्ट है। इससे न केवल एक भिक्षु को अपने समाज में किस तरह का व्यवस्थात्मक जीवन बिताना है,
परिसंवाद -२
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org