Book Title: Bharatiya Chintan ki Parampara me Navin Sambhavanae Part 1
Author(s): Radheshyamdhar Dvivedi
Publisher: Sampurnanand Sanskrut Vishvavidyalaya Varanasi
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बौद्ध विनय को दृष्टि में
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अन्तिम अशैक्ष्य मार्ग की अवस्था होने के कारण इन बुद्धकारक धर्मों को अशैक्ष्य मार्ग भी कहा गया है।
___इस प्रकार संघकारक धर्म के भी दो स्वरूप हैं, जिनको शैक्ष्य और अशैक्ष्य मार्ग कहा जाता है। आर्य सत्यों को साक्षात् रूप से जानने वाले स्रोतापन्न, सकृदागामी आदि मार्ग को शैक्ष्य मार्ग कहा जाता है, स्रोतापन्न फलप्रतिपन्न आदि मार्गों को अशैक्ष्य मार्ग कहा जाता है। इस मार्ग व्यवस्था के कारण आर्य पुद्गलों की संख्या आठ हो जाती है। संघकारक धर्मों से युक्त होने के कारण आमतौर पर उक्त आर्य पुद्गलों को ही वास्तविक संघ माना गया है। इस अर्थ में संघ का व्यवहार व्यक्ति के लिए ही होता है । उपसम्पन्न व्यक्तियों के चार या चार से अधिक लोगों के संगठन में भी उपचार से संघ शब्द का व्यवहार होता है, पर इस तरह के संघ को त्रिशरण के अन्तर्गत न आने वाला वास्तविक संघ नहीं माना जाता है।
धर्मशरण के अन्तर्गत आने वाला धर्मकारक तत्त्व प्रतिसंख्या-निरोध है, जिसकी शरण में जाने से दुःखों का समूल निवारण होता है। यहाँ त्रिशरण गमन से अभिप्राय त्राण के लिए आश्रय लेना है, जैसे कहा गया है।
कः पुनः शरणार्थः ? त्राणार्थः, तदाश्रयेण सर्वदुःखात्यन्तविमोक्षात् । (अभि० कोश भाष्य-पृ० ६३० बौ० सं० १९७१) ।
__ महायानी परम्पराओं के अनुसार उक्त सामान्य संघ के अतिरिक्त प्रतिसंविद् एवं विमुक्ति के आठ गुणों में से एकाधिक गुणों से युक्त आर्य पुद्गलों को भी त्रिशरण के अन्तर्गत वास्तविक संघ कहा गया है। इन आठ गुणों में से चार प्रत्यात्मसंविद् अर्थात् ज्ञानात्मक गुण हैं। ये चार हैं-यथावद् ज्ञानविशुद्धि, यावद्-ज्ञान विशुद्धि, सर्वसत्त्व अर्थात् समस्त जीवों की सन्तति में निहित तथागतगर्भ की साक्षात् ज्ञानविशुद्धि और प्रतिसंविद् ज्ञानविशुद्धि। इन चारों को प्रतिसंविद्गुण कहा जाता है । राग, प्रतिघ, हीनता एवं सामान्य आवरणों से विमुक्ति गुण इन चारों को विमुक्ति गुण कहा गया है । इन संघकारक गुणों के आधार पर अवैवतिक बोधिसत्त्वों को वास्तविक संघ के रूप में प्रस्तुत किया गया है, जैसा आचार्य मैत्रेयनाथ ने रत्नगोत्रविभागमहायानोत्तर-तन्त्र में कहा है--
यथावद्यावदध्यात्मज्ञानदर्शनशुद्धितः।
धीमतामविवानामनुत्तरगुणैर्गणः ॥ (प्रथमपरिच्छेद, १४) इस तरह श्रावकयान और महायान दोनों ही त्रिशरण के अन्तर्गत संघ को आर्य पुद्गल अथवा आर्य-गुण मानते हैं । यह वैसा ही है जैसे आगम, धर्मशरण न होते
परिसंवाद २
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