Book Title: Bharatiya Chintan ki Parampara me Navin Sambhavanae Part 1
Author(s): Radheshyamdhar Dvivedi
Publisher: Sampurnanand Sanskrut Vishvavidyalaya Varanasi
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भारतीय चिन्तन की परम्परा में नवीन सम्भावनाएँ ही अस्वीकृत कर दिया जाए। पहले पक्ष में तत्तद् दृष्टि से परे एक प्रत्यक् तत्त्व की स्वीकृति आवश्यक होगी। बिना इसको माने तत्तत् दृष्टि के दृष्टित्व का प्रहाण सम्भव नहीं होगा। यदि इस सम्यक् तत्त्व को किसी श्रुति आदि प्रमाण के आधार पर स्वीकार किया जाएगा तो उस तत्त्व की स्वीकृति स्वयं दृष्टिमूलक हो जायेगी। प्रमाणों का सारा विस्तार वास्तव में दृष्टियों का ही विस्तार या प्रपञ्च है। जब तक इस तत्त्व को प्रमाणों से परे, प्रमाण-अप्रमाण से अनिर्वचनीय नहीं माना जाता, तब तक यह दृष्टि की परिधि से बाहर होकर दृष्टि का प्रहाण नहीं कर सकता; उस अवस्था में यह महादृष्टि बनकर रह जायेगा। अद्वैत वेदान्त की प्रक्रिया में, जिसका यह मन्तव्य है, इसीलिए ब्रह्म को अनुभवैकगम्य शुद्ध चैतन्य रूप माना गया। इस चैतन्य में विषयविषयी के भेद को अस्वीकृत करके वेदान्त ने ब्रह्म को वस्तुतः प्रमाणातीत माना और शास्त्रों को 'अविद्यावद्विषयाणि' कहा। ब्रह्म की श्रुति प्रमाण द्वारा सिद्धि का मुख्य प्रयोजन ब्रह्म में प्रमाणाभाव का निराकरण है जिसके कारण ब्रह्म का अभाव असिद्ध करके तटस्थ रूप में ब्रह्म का निर्देश सम्भव होता है। परन्तु प्रमाणाभाव का अभाव स्वयं में ब्रह्म के स्वरूप का ज्ञान नहीं करा सकता, इसीलिए ब्रह्म की प्रत्यग्-रूपता का सहारा लेना आवश्यक है। साक्षात् अपरोक्षानुभूति चूँकि विषय-विषयी अभाव के भेद को सर्वथा अतिक्रान्त करती है, इसलिए वह दष्टिमात्र की सम्भावना से भी परे हैं। ब्रह्म की इस प्रत्यग-रूपता का यदि विवरण देना हो तो दृष्टि का सहारा लेना आवश्यक होगा, क्योंकि यह विवरण भेद को अवश्यमेव अङ्गीकार करके ही सम्भव है। इसलिए प्रत्यक्रूपता का व्याख्यान, अबाधितत्व के रूप में प्रस्तुत करके ब्रह्म के प्रमाणाभाव के अभाव को ही बतलाया गया है। इस तरह ब्रह्म की साक्षात् अनुभूति सकल दृष्टि, अविद्या के प्रहाण की सम्भावना प्रस्तुत करती है। अब इस अबाधितत्व को मूल मानकर बाकी तत्तत् दृष्टियों का व्याख्यान सम्भव हो जाता है।
ऊपर उल्लिखित दूसरी सम्भावना का उपस्थापन माध्यमिक बौद्धों ने किया है । जैसा कि सर्वविदित है उनके अनुसार भगवान् बुद्ध ने अपने सद्धर्म का उपदेश ही सर्वदृष्टि-प्रहाण के उद्देश्य से किया था। माध्यमिक प्रक्रिया में तत्तत् दृष्टियों और उन दृष्टियों द्वारा व्याख्यात अनुभवों में न केवल असामञ्जस्य दिखाया गया है बल्कि चतुष्कोटि, जो दृष्टि की चार सीमाएँ हैं, की हर कोटि में व्याघात (स्व वचन का स्व वचन से और स्व का पर वचन से) सिद्ध किया गया है। कारणता, गति, धर्म, संस्कार, निर्वाण, आत्मा, सम्बन्ध आदि सब उपलब्ध दृष्टियों का इस प्रकार खोखलापन दिखाकर यह प्रतिपादित किया गया कि जब तत्तत् दृष्टि का अनुभव से कोई लगाव नहीं है तो दृष्टि-मात्र का लगाव भी नहीं होगा। यह भी बतलाया गया कि परिसंवाद-२
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